Thursday, December 27, 2012

........चाय की दुकानों पर लोकल मेड बिस्कुट मिलते हैं !

           टूटे हुए रंगबिरंगे टुकड़ों को एक तिकोने से लगभग डेढ़ फुट लम्बी सी नली में दाल कर घुमाने पर बनने वाली फूलों की आकृति से मन को कितनी ख़ुशी मिलती थी , जिसकी तुलना आज के टेबलेट और एप्पल के अताय्धुनिक लेपटोप से भी नहीं होती ....जबकि सब आसानी से उप्लब्ध है !!
           जी हाँ हम और आप जो अपना बचपन 80 के दशक में बिता चुके और 90 के दशक में अपनी किशोरावाथा में जिए हैं ...को इस बात का ज्यादा अनुभव होगा !! आइये एक एक उधाहरण ले कर के यादों के शीशे पर ज़मी धूल को साफ़ करते हैं ....!!
            चाक और मिटटी के बने खिलोने, रंगबिरंगे काग़ज़ों से बने विभिन्न प्रकार के , पोस्टर्स , आकृतियाँ , चकरियां , मिटटी से बने फल , लकड़ी से बनी अलग अलग तरह की घरों में काम आने वाली चीज़ें ...जैसे रसोई का पीढ़ा , मथनि , नीबू का रस निकालने वाला सामान्य सा यंत्र , चकला - बेलन , कलछुल ,पलटा और छनौटा ....सब अपने अपने जगह पर काम की चीज़ !!  मिटटी के तेल से जलने वाले लेम्प .... कभी कभी मिटटी के तेल का बर्तन टिन का होता था ...और यदि थोड़ी आधुनिकता से देखा जाये तो वो भी कांच का ....! मुझे याद है ...मेरे नाना जी घर के दो या तीन मिटटी के तेल के लेम्पों को रोज़ शाम को सुबह के बुझे चूल्हे के उपले की राख से साफ़ करते थे ....बड़ा धीरे धीरे और प्रभावी प्रोसेस हुआ करता था वो ...में तो बड़े मज़े ले कर देखता था जैसे कोई रिसर्च चल रही हो और तय समय में परिणाम आने वाला हो ..... !! अंतिम परिणाम आता था पुराने अखबार से साफ़ करने पर ...एकदम चकमक चकमक ...और जब लेम्प उस शीशे के साथ जलता था तो पूरा कमरा रोशन रोशन ....कमाल का समय था वो ...आजकल हम कहाँ एक साल की गारंटी वाली सी ऍफ़ एल की रौशनी में वो मजा ले पाते हैं !! 
           कुछ दिनों बाद मैं दोबारा फिर उस सब्जी मंडी में जाना होगा ....जहाँ मैंने अपने बचपन का काफी लम्बा समय गुज़ारा है ...वहां नेकर में घूमता था ...नीली रंग की जुर्राब , काले जूते , सफ़ेद कमीज़ और नीली नेकर में  आलू  चाप खाते हुए .....पीली मटर की पनियल सब्जी के साथ !!
           अभी पिछ्ले हफ्ते ही वहां जाना हुआ था , एक विवाह में ! इस बार मेरे साथ मेरा परिवार था और कभी मैं वहां किसी के परिवार का हिस्सा था अपनी जगह ढूंढता हुआ ...वो तलाश अंतिम दिन तक चलती रही जब मैंने उस शहर को छोड़ा और रेल की गाड़ी ने प्लेटफोर्म को ...! आज में हूँ और मेरा परिवार है ...और वहीँ हूँ जहाँ वो समय बिताया जो नीव के पत्थरों की तरह से है ...जिनके कारन ही आज ये इमारत खड़ी है !!
            वो सब्जी का बाज़ार आज भी लगता है , वो टाटा कंपनी का नाला आज भी बहता है , रात में कभी कभी आज भी आकाश आज भी नारंगी सा दिखाई देता है ...आज भी वहां सडकों के किनारे किनारे छोटी छोटी चाय की दुकानों पर लोकल मेड बिस्कुट मिलते हैं ....जो बड़े ही सम्मान के साथ खरीद कर खाए जाते हैं .... आज भी रबर के दबा कर बजाये जाने वाले भोपू टाइप साइकल पर लगी घंटी को बजा कर इडली सांभर बेचने वाला आता है ...जिसको कभी आता और जाता देख कर अपने सक्षम ना होने पर इश्वर पर कोफ़्त होती थी और आज उसके हाइजिनिक न होने पर हम नहीं खाते ...सक्षम हम तब भी नहीं थे और आज भी नहीं हैं चाहे जैसे भी हो उस इडली को खाने के लिए !!
             

Sunday, November 18, 2012

सूर्य अस्त ज़रूर होता है , किन्तु पुनः उदय होने के लिए !!

                               सूर्य अस्त ज़रूर होता है , किन्तु पुनः उदय होने के लिए !! 

             सामान्यतः उदय होते सूर्य को नमन करने की परंपरा है किन्तु ये भारत है और यहाँ सब के लिए सम्मान की संभावनाएं हैं ..... !! एक पर्व मनाया जाता है हमारे देश के पूर्व के हिस्से में ...दीपावली के बाद छठ नाम से जिसमे सूर्य भगवान् को अर्घ देने की परमपरा है ....दो बार जिसमे पहला अर्घ डूबते हुए सूर्य को अर्घ दिया जाता है और पूरी रात नदी , सागर , ताल , तल्लिया , झील जिस के भी  किनारे रुक कर पूजा अर्चना की जा रही है दूसरा अर्घ अगले दिन उगते हुए सूर्य को देते हैं !!

             आज दिनांक 18.11.2012 को भारत के एक पश्चिमी राज्य के एक प्रतिष्ठित व्यक्तित्व की अंतिम विदाई में भी लाखों लोगो ने नाम आँखों से सम्मान व्यक्त किया ! उत्थान और पतन एवं पुनः उत्थान जीवन के साथ चलने वाली पुष्पों की पौध हैं ....जो कहीं मौसम और परिवेश के अनुसार खिले मिलते हैं और कहीं छुईमुई की तरह से थोड़ी देर के लिए सिकुड़े हुए ...किन्तु जल्दी से खिल जाने की आशा लिए !!
             अब देखिये ना कुछ सालों पहले की बात होगी ...पड़ोस की भाभी जी अपने छोटे बच्चे को ले कर आई थीं मेरी बहन से पढ़ाने के लिए ...वो बच्चा खूब पढ़ा ...और अब भी सही से पढ़ रहा है .... आज उस से मुलाक़ात हुई ...कुछ परेशान था ....कारण जो उसने बताया " भैया दीदी आज मुझे एक पुराना दोस्त मिला ...और उसने मुझ से कहा की यार तुम तो पीछे रह गए ...बस इतना सुनके भाई साब परेशान ....!! "  खुद ही समझ गया वो ...जिन परिवेशों , जिन उप्लाभ्धियों और सह्योंगों के बीच में वो पला और बढ़ा है उसमे उसने जितना प्राप्त किया और कर रहा है वो तुलनातमक नहीं है , न ही हो सकता ....जो कर रहे हो  वो उत्तम है बस उसे सर्वोत्तम करने की ज़रुरत है ....न की किसी और की उपलब्धि के तुलना कर के परेशां हुआ जाये !! ये संतोष तो है ना की किसी आरक्षण की बैसाखी का सहारा तो नहीं लिया !!
           रोज़ सबेरे में टहलने जाता हूँ , रोज़ उस से मिलता हूँ ! वो ...हाँ वो जो रेलवे के फाटक के दुसरे किनारे पर सफेदे के सूखे पेड़ के किनारे एक प्लास्टिक के बोर पर अपने दोनों हाथों को अपने दोनों घुटनों के बीच में जोड़ कर सबकी सलामती की दुआ करता रहता है ....हर किसी ...की जी हाँ सही सुना सब की कोई भी व्यक्ति विशेष नहीं , कोई भी आम नहीं ...सब सामान हैं उसके लिए किसी ने कुछ दे दिया तो ज़रा और जोर से बोल देता है ...किन्तु सब की सलामती की दुआ मांगता है ....!! उसके किनारे से ना जाने कहाँ कहाँ कहाँ के लिए लोग जाते हैं ....रेल से तो एक तरफ जम्मू और दूसरी तरफ मुंबई और दिल्ली तक ... और सामने वाली सड़क से सब लोग बस चलते चले जाते हैं ...दूर दूर ...किन्तु वो वहीं रहता हैं सबको दुआ देता हुआ , अपने अपने गन्तव तक सही सलामत पहुच जाने के लिए .... वो खुद चल नहीं सकता ....और देख भी नहीं सकता बस बोल सकता है !! उसको उसके बचपन से देख रहा हूँ ... सब कुछ बदल रहा है . बदल रहा है तो बस एक चीज़ नहीं उसकी दुआ और वो ज़गह जहाँ वो है और था !! इस जीवन में क्या है , कुछ नहीं बस वो जो हमने दूसरों को दिया जिस से आप याद् किये जाओ ....अपने लिए तो वो चार टांगों वाला भी कर ही लेता है ...एसा सुना है ....!! ये हल्का तर्क है ...किन्तु कभी कभी भारी माहौल में हलकी बात वज़नदार हो ही जाती हैं !!
           गाज़ियाबाद में एक जगह है नाम है गन्दा नाला ....वहीँ पर दो दुकाने हैं जहाँ पर शहर की सबसे अच्छी इमरती और जिलेबी मिलती हैं !! बहुत अजूबे हैं ....ज़रा ठीक से टटोलिये संभवतः आपके आस पास भी कुछ लोग इसे मिलेंगे ....जो कभी परिभाषित हो ही नहीं सकते ....जो चाहते सब हो किन्तु देना कुछ नहीं ...एसे लोग अपनी पहचान कभी कर ही नहीं सकते किन्तु दुसरे लोग उन्हें ज़रूर पहचान के दूरियां बना लेते हैं ....मौकापरस्ती ज़यादा समय तक साथ नहीं देती !!
          सहारा ले कर उठाते लोग ....सूरज होते ही नहीं ....भले सवयम को परिभाषित सवयम्भू के रूप में करैं ....कूपमंडूक की तरह ...ये ही सच है !!
           

Wednesday, November 14, 2012

रिश्ते भी व्यापारिक कारणों से ही बनाते है , समर्पण के भाव ....से नहीं !!

                        व्यापारी और मौकापरस्त लोग रिश्ते भी व्यापारिक कारणों से ही बनाते है  , समर्पण के भाव ....से नहीं !! बल्कि समर्पित कभी हो ही नहीं सकते .....उन्हें स्वयं का शारीर भी अच्छे पहनने ओढ़ने के बाद ही अच्छा लगता है !! ..... इसे तरह के मानवों से बचना चाहिए ....किन्तु शर्त ये है की उनकी पहचान जल्दी हो सके .....जो की मश्किल काम है उन लोगो के लिए जो मौकापरस्त नहीं होते ...और व्यापारी भी नहीं !!

Tuesday, November 13, 2012

त्योहारों की तैय्यारी को जितना एन्जॉय कर लेते हैं उतना असल में त्यौहार मानाने को नहीं ....!!

                अब देखिये ना .आज दिवाली है ...अन्धकार से रौशनी की ओर जाने का पर्व ! अब अन्धकार किसी भी तरह से परिभाषित किया जा सकता है !!  वैचारिक , वाव्हारिक ,आलोचनातमक दृष्टिकोण इत्यादि इत्यादि ..... !

                अभी शाम के 9.30 बजे हैं और हमारे घर के सामने वाले पार्क को धुआं पूरी तरह से अपने आगोश में ले चुका है ! ठीक सामने वाले ब्लाक की रंगीन झालरें ठीक से नहीं दिखाई पद रहीं !! .... हर ब्लाक के सामने कोई ना कोई अपने अपने अंदाज़ से अपनी पहचान ज़यादा से ज़यादा पटाखे जला कर साबित करने में लगा है !! कितना अजीब है आज कल का माहौल , कल के बीते समय से बिलकुल अलग !! अभी कुछ दिनों पहले ही एक साथी हमें छोड़ कर इश्वर के पास चला गया , और साथ में चली गयीं उनकी यादें !! सब अपने अपने काम में मस्त / व्यस्त ! किसी को शयद याद भी ना आई हो ...और आई हो , तो आई हो ...दिवाली में क्या करियेगा !! दिवाली ही मनेगी !!

                 एक बार एक मित्र ने कहा था की <-> " रविवार से ज्यादा शनिवार को एन्जॉय करते हैं !" इस ख़ुशी में की कल छुट्टी है !! वैसे ही कल मुझे एहसास हो रहा था !!  रात के 10 बजे थे ...छोटी दिवाली के दिन , खाना खा कर के टहलने निकला था ...घर से पास के स्टेशन से होते हुए बसंत रोड पर निकल पड़ा ...वाह निकल गयी मुह से .... अमूमन 9:30 से 10:00 बजे सुनसान हो जाने वाली सड़क ....आज दिन के 10:00 की तरह से शबाब पर थी ...सभी दुकानें खुली थी और खरीदारी हो रही थी .... ! हाँ ये सड़क कुछ वर्षों पहले भी 9:00 और रात के 12:00 बजे गुलज़ार रहती थी ...जब " बसंत " सिनेमा हाल चला करता था .... मैंने भी उसमे एक आखिरी फिल्म देखि थी ...छोटे से अपने भाई अंकुर के साथ ...और फिल्म का नाम था " डर " !! आजकल उस जगह पर एक बहुत ही बड़ी कार बनाने वाली देसी कंपनी का शोरूम खुल गया है !! बड़े ही कुलीन लोग आते जाते हैं ...समय पर और समय पर वो बंद भी हो जाता है !! खैर हम तो सब दुकानों के खुले होने पर आश्चर्य प्रकट कर रहे थे !! मैं आधे घंटे में वापस आ गया और सोचा की क्यों ना कल की की जानेवाली खरीदारी को आज ही निबटा दिया जाये !
                 हमें एक थैला लिया , और चल पड़े बाज़ार ...रात के 10:45 पर !! मोटरसाइकल पर अब मुझे चोपला मंदिर और मोडल टाउन दिखाई देने लगा था ....बसंत रोड तो पैदल बाज़ार की लिए है ...मोटरसायकल पर तो घंटाघर और बजरिया की मार्किट बनती है ना  ......!! बसंत रोड से होते हुए ... मालीवाड़ा ...डासना गेट और फिर रमते राम रोड से आनंद चिकन ...फिर गंज से होते हुए चोपला ...वाह ...रात के 11:15 हो रहे थे और चहल पहल इस तरह की जैसे 7 तारीख के बाद पड़ने वाले किसी रविवार को होती हो !!
               खील , मीठी खील , खिलोने , बताशे , फल मोमबत्ती  , मिटटी के दिए ...रूई , तरह तरह की झालर ... रंगीन कागजों पर "  हैप्पी दिवाली " लिखा हुआ , पटाखे और ना जाने क्या क्या ....!! एक तबका तो अपनी अपनी संगिनी को ले कर के देसी घी के बने पकवान चखने में मशगुल दिखाई पद रहा था ....कंधे से कंधे टकरा जाएँ इस कदर भीड़ !! आलू की टिक्की , पानी के बताशे ( गोलगप्पे ) की ठेलियों पर तो लोग लाइन लगा लगा कर खड़े इस तरह की ...जैसे आज नहीं खाया तो ये स्वाद फिर शायद अगले साल ही नसीब हो ....!! 
               भगवान् की मूर्तियाँ ...! मोलभाव कर के खरीदते लोग अपने अपने भगवान जी को !! कम से कम भाव दे कर ख़रीदा जा सके ...खरीद लो ...कल उन्ही से जितना ज़यादा से ज़यादा माँगा जा सके !  माँ लक्ष्मी धन की देवी हैं और उन्ही को मोल भाव कर खरीद कर उन्ही से सम्पन्नता की आशा .... ये हम सब करते हैं ! अरे भाई दूकान पर तो मूर्ति बिकती हैं ...और भगवान् तो उनको हम अपने घरों में लाने के बाद बनाते हैं , तो मोल भाव करने में क्या संकोच करना ....अब ये कोई पके पकाए मिलने वाले फ़ास्ट फ़ूड की बात थोड़े ही है .की मोल भाव की संभावनाए नहीं ... !!  कल्कत्त्ता , टेराकोटा और लखनऊ की मूर्तियाँ कुछ जायदा महंगी है ...और जो लोकल मेड हैं ...वो कुछ कम दाम में उपलब्ध हैं ....पर उनको लेने वालों की कमी है ....अब घर में मंदिर को अपने आगंतुक मित्रों को दिखाएँगे क्या //// लोकल , ना जी ... ना टेराकोटा ही लेंगे भले महगी हो ...साल भर का त्यौहार होता है !! 
                  मोमबत्तियां , खील , बताशे , रूई , दिए और बाती खरीदी , एक पान खाया ( सादा ) और एक किनारे मोटरसाइकल खड़ी कर के बाज़ार की चेहेल पहल देखने लगा !! 

1. दीयों के ढेर के बगल में अम्मा जी खटोले पर बैठी थीं , शायद रात में वहीँ सोएंगी , उन दीयों के साथ जो नहीं जलेंगे ....नहीं बिकेंगे !

2. गन्नों का ढेर और उनके बगल में रखा एक तखत जिसपर उनसे जूस निकलने की मशीन लगी थी ...गुमसुम .. अब सर्दियों में गन्ने का रस कौन पीता है ...आज अगर ना बीके तो कल के लिए सोचेगा वो ...

3. मोमबत्तियों के ढेर , पेकेट और लड़ियों के बीच बैठा जुनैद .....जो बिकेंगी वो बिकेंगी नहीं तो फिर उसी अनाथ आश्रम में वापिस कर आऊंगा जहाँ से लाया था !

4. अंग्रेजी , हिंदी में लिखे हप्पी दिवाली की जुमले रंगीन कागजों पर ....अब शायद अगले साल ही कोई ले ....अगर आज नहीं बिके तो ...सोचता हुआ वसीम / तरुण मोल भाव में मगन !!

                पान का बाकि बचा हिस्सा खाया और चल दिया हनुमान जी के दर्शन करता हुआ घर की तरफ !! रस्ते में पूजा और पूजन से सम्बंधित सामग्री मिलती हुई दिखाई पड़ी ...और गर्व हुआ अपने भारतीय होने पर ...हम चाहे कितने भी आधुनिक और मॉल कल्चर के करीब क्यों ना आ जाएँ ...जब अपने संस्कारों और अपनी परम्पराओं की बात होती है तो हम ज़रूर अपने उन सभी पारंपरिक आलेखों को साफ़ कर के अपना लेते हैं जो हमारे बुजुर्गों ने हमें दिए हैं  !  एक रात को ही सही , हम सही में पारंपरिक हो जाते हैं !! कोई समझौता नहीं इसमें !! पूजा की थाल , उसमे सेब , केले , मीठे खिलोने , खील , मिठाई , चांदी का एक सिक्का , चन्दन , अगरबत्ती  , रोली , धुप , फूल माला , मिटटी के दिए , रूई की बाती , सरसों का तेल ...सब वो ही बरसों पुराना ...हम जुटा लेते हैं जैसा की हमारे और उनके माँ पिता ने बताया था !
             1812, 1912 और अब  2012 क्या कुछ नहीं बदला होगा वर्षों में बस लाल किला , ताज महल    को छोड़ दीजिये और भारत भी !! यद्यपि सब बदलता रहता है ...तथापि परिवर्तन का सामीप्य अर्थपूर्ण होना चाहिए !! ... मैं जैसे जैसे अपने घर की ओर बढ़ रहा था बजार की रौनक कम हो रही थी ... और एक अजीब सी शांति मुझे घेरने लगी थी ....रस्ते के निशाचर घूर घूर के मुझे देखने लगे थे ....अपने घर पंहुचा और सब सामान देखा ...कल की पूजन की तयारी पूरी थी !!

              आज ही वो कल वाला कल था ...मैंने अनुभव किया की हम स्वस्थ परम्पराओं और त्योहारों की तैय्यारी को जितना एन्जॉय कर लेते हैं उतना असल में त्यौहार मानाने को नहीं ....!! सहमती हो तो एन्जॉय कीजियेगा ...मुझ से शेयर कर के !! हप्पी दिवाली !! मेरा भांजा ( वासु - मृगांक ) कहता है ...हप्पी दियाली .....( दिवाली नहीं कह पता अभी ...) भवनाये और अनुभव दोनों शब्दों के मोहताज़ नहीं हैं !! 

...किसी के मिटटी के दिए लाने हों , रूई की बाती लानी हो.....

          " दीपावली " जी हाँ रौशनी का त्यौहार ...किन्तु इस के आते ही पुरे मोहल्ले में " प्रतिभावान " लड़कों के कमी सी पद जाती है ...अचानक !!
          सामान्य दिनों में किसी भी कोने पर दो चार के झुण्ड में कभी भी देखा जा सकता है और मन में विचार लाया जा सकता है ..." दिन भी कुछ काम नहीं इनको , बस नुक्कड़ पर खड़े रहने के सिवा " , पता नहीं पढ़ते लिखते भी हैं की नहीं ...आते जाते नमस्ते करवा लो इन से ...अरे बढती जवानी के लड़के हो अपनी बुध्ही का इस्तेमाल करो ...लिकिन मजाल है को कोई तस से मस हो जाए ...!! पता नहीं दिन भर की विषय पर चर्चा करते हैं की ख़तम ही नहीं होती ? और अगर कभी कभी दूर भी जाते हैं तो ये कहते हुए की ...चल मिलते हैं ..." बताइये .....ये क्या बात हुई !! कपडे ब्रांडेड पहनेगे ...!! वैसे तो सब रहते सूटेड बूटेड हैं फिर भी इनको अपने घर में कोई निमंत्रण दे कर नहीं बुलाता !!
        लेकिन दिवाली के आते ही देखिये इनका जौहर !! क्या थॉमस अल्वा एडिसन , जेम्स वाट ने बिजली और रौशनी की ख़ोज में अपना कमाल दिखाया होगा ...उन महान लोगो से 100% ज्यादा महानतम काम में दख्श हो सकते हैं ये नुक्कड़ के लड़के !! कैसे ? लीजिये कुछ उदाहर्ण प्रस्तुत हैं :

       अब तीन दिन बाद धनतेरस होने की बात चल पड़ी थी मोहल्ले में ! गोस्वामी जी का बेटा इस साल शायद आ ना सकेगा दिवाली में ...अभी पिछले साल ही तो 12000वि रैंक आई थी उनके बेटे की ...ओ बी सी और उसके दादा जी के स्वतंत्रता सेनानी के कोटे से एक दोयम दर्जे के एन्जेनिरिंग कालेज में दाखिला मिल गया था ... कम्पुटर साइंस में !! मारे गर्व के फूले नहीं समाते थे दोनों ! वैसे दो बेटियां है बड़ी डबल एमे , और एक लड़के से छोटी बी एस सी कर रही है माइक्रो बैलोजी में लेकिन उनको तो अपने बेटे की दोयम उपलब्धि पर नाज़ था ...बड़ी बेटियों की शादी हो चुकी थी और छोटी अभी पढ़ रही थे ...गिन के तीन लोग घर में ....बेटे के जाने के बाद !!  गोस्वामी जी ज़रा शारीर से कैलाश पर्वत सामान थे ....तो चलना मुहाल था ...और पत्नी जी ..बस झाड़ू लगा लेती थी ...और बाकि घर का काम काम वाली करती है !! खाना पीना तो बिना किसी संकोच के छोटी बेटी करती थी !!
      अब धनतेरस आ रहा है ! सफाई करनी है ! और घर सजाना है ...! भीतर भीतर का सजाना हो बड़ी शुध्ही से सब ने मिल कर कर लिए लेकिन बाहर की लड़ियों और साज सज्जा का काम कौन करेगा .....?? बेटा तो कालेज में कुछ और ही सजाने में मगन है इस साल , पिता जी शरीर संभल रहे हैं ...!! फ़ोन कर के इलेक्ट्रिशियन को पुछा तो बोला " 1000 रूपय लगंगे और दो दिन बाद आऊंगा ! अरे कल धनतेरस है और वो दिवाली वाले दिन लाइट लगाएगा तो क्या तो लक्ष्मी जी आएँगी और क्या मोहल्ले में इज्ज़त रहेगी ? अब क्या किया जाए ?

    अब शुरू होती है मोहल्ले के सब से नाकारा लड़कों की !! आज क्या पता भगवान् धन्वन्तरी के आशीष से प्रतिभा उनमे से अचानक प्रफुल्लित होने लगती है !! और सबसे अजूबी बात की गोस्वामी जी जैसे ना जाने कितने मोहल्ले वाले लोगो को ये दिखने भी लगती है !! सा सम्मान अपने घरो में उन्ही लड़कों को आमंत्रित करते हैं इन शब्दों के साथ : " बेटा - ज़रा हमारी भी लड़ियाँ देख लेना ! रोहन के जाने के बाद हमें तो कुछ पता ही नहीं की की कैसे के होता है !! अब तुम खुद ही देख लेना और सजा देना अपने आप सब ठीक से .... वो अन्दर के दीवान के अन्दर रखी हैं .... अंजू मदद कर देगी ढूँढने में ...!! अब देखिये क्या कमाल की बात है ! जिन लड़कों के साये से भी पुरे साल अपने बच्चों को ये दंपत्ति दूर रखता है वो आज दिवाली के मौके पर अपने घर में आने का आमंत्रण देता है और अपनी बेटी के साथ हाथ बटाने की बात करता है !! कमल का टेलेंट जन्म ले लेता हैं इनमे !!  कोल्ड काफी , हॉट टी और बर्गर के साथ लाइटिंग का काम पूरा कर के ही हटाते हैं ये प्रतिभवान लड़के ! एक से काम ना निबटे और अगले घर की टी भी लेनी हो तो मिल जुल कर काम करते हैं ....कैसी भी उलझी लड़ियों का काम हो ...बास चुटकियों में सुलझा देते हैं भाई !! बड़े गुणी लड़के हैं !! रंग बिरंगी झालर , बाज़ार से लाते हैं ...पसंद ना आये तो बिटिया को उन्ही के 1995 के स्कूटर पर बैठकर ले जा कर पसंद करवा कर जिमेदारी से लगते हैं !! बिजली तो उस दिन जैसे कालिया नाग बन जाती अहि उस दिन ...बिलकुल सीढ़ी और आज्ञाकारी ! कैसी भी समस्या मिनटों में सोल्व ! फिर आशीर्वाद मिलता है तानो के साथ : बेटा तुम इतने समझदार और होशियार हो ...सारा दिन घुमते रहते हों थोडा पढ़ा लिखा करो ...!  अब इनसे पूछे कोई ये सब क्या ज़रुरत रहती है कहने की ?  खुद का बेटा चाहे अपने कालेज के घर को ना सजा  कर अपने टूशन टीचर के घर की लड़ियाँ ठीक कर रहा हो लेकिन , इनको तो हम में खोट दीखता है ना !!
             आधुनिकता और तेज़ चलती इस दुनिया में हम भारतियों के त्यौहार आज भी अपनी गरिमा और गति बनाये हुए हैं जो काल के चक्र के चलने के बावजूद अपनी धुरी से अलग नहीं होने देता ..... जैसे ये लड़के पुरे साल जी घर में सिर्फ अपनी नज़रों से दाखिल होते रहते हैं को त्योहारों के मौके पर सा शरीर निमंतरण दे कर बुलाये जाते हैं और जिम्मेदारी से अपना काम कर के फिर अगले बरस की प्रतीचा में लग जाते हैं ....और ये सिलसिला चलता रहता है ..अगली पीढ़ी के आने तक !!  किसी के मिटटी के दिए लाने हों , रूई की बाती लानी हो, खील , खिलोने , बताशे लाने हों , गणेश , लक्ष्मी की मूर्ति लानी हैं , गेंदे की फूल माला , आम के पत्ते , घर के दरवाजों पर तोरण सजाना हो ....या भी लड़ियों के ठीक किये जाने से ले कर उनको लगाने तक के सब काम कर सकने की प्रतिभा जिन लड़कों में है वो शिक्षित किस मायने में नहीं है , ये निर्णय कौन करेगा !! शायद वो लड़के स्वयं क्यों की स्वयं का मूल्यानकन .... प्रमाणिक और प्रत्यक्ष होता है !! साल भर के बाद एक बाद कार्य को करवाते समय गुणों का आंकलन ...अनुबंधित होता है !!
              आज मोहल्ले और गलियों की धमनियों में बहता अपनापन निजिता और सामाजिकता को जीवित रखे हुए है , इश्वर से प्रार्थना करते हैं की मोहल्लों की जीवन्तता ऐसे ही बनाये रखिये !!
   

Sunday, November 11, 2012

अंजुली-अंजुली धुप छुपाकर....

अंजुली-अंजुली धुप छुपाकर,
चुटकी - चुटकी रंग बांटूं !
पलकों - पलकों ख्वाब छुपाकर,
सतरंगी   आँचल बांटूं !!

खुशबू- खुशबू गलियां सारी ,
आँगन - आँगन उजियारा !
जुगनू का सा हो जाऊं और,
रौशनी   केवल   बांटूं !!

**** हैप्पी दिवाली ****




Friday, October 26, 2012

.... अच्छे समय में उठाया गया कदम !!

                  सर्दियों की शाम के कोई चार बजने को थे , भारतीय घरों में सामान्यतः चाय का समय लेकिन वो कुछ परेशान सा था ...अभी अभी तो आया था माँ को अस्पताल में छोड़ कर बेसुध ...वो कुछ नहीं बोलती थी बस देखती रहती थी , आज भी नहीं बोली थी जब दोपहर को आये उनके लिए अस्पताल के खाने को ले कर उसने ही खाया ...क्यों की वो तो खाती नहीं थी ..बस आजतक सब का ख्याल रखती आई थीं ...आज भी उनके ही हिस्से का खाना बच्चों ने खाया था !! 1 घंटे का सफ़र कर के घर वापस आया था कुछ देर आराम करने के लिए ...अस्पताल में आराम कहाँ मिलता है ...वैस कर ने को कुछ काम नहीं होता लेकिन मानसिक तौर पर आप हमेशा व्यस्त रहेते हैं ... चिंताग्रस्त पता नहीं क्या होगा ? सोच सोच कर ....!!

            अभी तीन महीने पहले ही उसकी माँ को जोंडिस हुआ था , संभल गयीं थी उनकी सेहत लेकिन पूरा घर अव्यवस्थित हो गया था ....सब कुछ दिशाहीन हो गया था !!  कभी कभी लोग आते थे उनसे मिलने , बस मुस्कुरा देती थीं सारा दर्द अपने गले से निगलते हुए !!  कमर में भी दर्द रहने लगा था ! थोडा झुक कर चलने लगी थीं ! एक दिन सबेरे अचानक चल नहीं सकीं , रुक गयीं कुछ बुखार सा था राहुल ने काम पर जाने से मना किया ...मम्मी मत जाओ आज ....हाँ पिता के देहांत के बाद काम करना पड़ता था राहुल की माँ को , राहुल और दो और बहनों की पढाई और खाने पीने के लिए .... बस आज नहीं जा सकी ...दर्द ज्यादा था !! दिन , हफ्ते  और महीनी बीते ....इलाज चल रहा था ...और पैसा पानी की तरफ बह रहा था ...जो भी था उसी में से !!

          स्थानीय डाक्टरों ने 26 जनवरी सन 2000 को मना कर दिया और किसी सरकारी अस्पताल में ले जाने ...हाँ दिल्ली के गुरु तेग बहादुर अस्पताल ले जाने की सलाह दी , लगभग कह ही दिया !! लोकल अस्पताल में जो खर्चा आया उसका भुगतान राहुल के मौसा जी ने किया ....वो खुद नहीं आये थे कभी भी ...हाँ पैसो का इन्तेजाम कर दिया !! अब दिल्ली के जी टी बी में था अपनी माँ को ले कर के ...सरकारी अस्पताल में ....अकेला ...दो बहने , पडोसी लोग आते थे मिलने कभी कभी , कोई दफ्तर से शाम को आता था ....कोई दिन में ...एक बार तो हाँ सिर्फ एक बार पुरे महीने माँ के अस्पताल में भारती होने के बाद माँ की पड़ोसन दोस्त साथ में मिलने आयीं थीं  ! सब जिगरी दोस्त थीं राहुल की माँ की !!  किसी ने स्वेटर बनाना सीखा था तो किसी ने जीवन में कैसे अकेले लड़ा जाये सीखा था .... उनको देख कर पुरे महीने चुप रहने वाली राहुल की माँ पहली बार और आखिरी बार बोली थीं ...एक सबसे करीबी दोस्त को देख का  कर और उनके शब्द थे - " अब आई हो ?? "  जैसे बोलना चाह रहीं थे की बस अब तो मैं जा रही हूँ ...इतने दिनों तक इंतज़ार किया और तुम लोग नहीं आये ....अब आये हो ...?? !! लेकिन इस पुरे समय में राहुल की सबसे छोटी मौसी उसके साथ थी ! हर कदम पर ....किन्तु सब को चलना खुद ही होता है ...और पैर नगें हो तो तपिश ...चाहे वो कैसे भी रूप में हो ....पैसो की कमी , नाते रिश्तेदारों का नकारीबियत समय पर , समाज में कम पहचान , इत्यादि !!

                 दिन , हफ़्तों कर के वो दिन आ ही गया जब उसकी माँ चली गयी !! रात के करीब 12 बज रहे थे ,  अचानक माँ की साँसें तेज़ चलने लगीं , राहुल समझ गया था की आज सब ख़तम ....हो जायगा ...वो चुपचाप अस्पताल के उसक वार्ड के दरवाज़े पर खड़ा हो कर अपनी माँ को कराहते हुए जाते हुए देख रहा था ...ना रो पा रहा था , ना ही कुछ कर पा रहा था ....दौड़ कर रात की ड्यूटी पर के डाक्टर को ले कर आया ...उसने देखा और सब बंधन निकाल दिए ...नेबुलिज़ेर , सलाइन सब ...और कहा ...ये अब जिन्दा नहीं हैं ...मेरे साथ आइये ...मैं मृत्यु प्रमाण पत्र लिख देता हूँ !!  सब खामोश ...एक डरवाना सन्नाटा !! उस रात ....राहुल के दो दोस्त ...अमित और सुधांशु उसके साथ थे ....एक दूर के भैया भी साथ थे ...एक अम्बेसेडर कार में पिछली सीट पर राहुल और उसके दोनों दोस्तों की गोद में लेट कर आयीं थीं , अपने घर राहुल की माँ ...अंतिम बार ...फिर जा कर कभी ना आने के लिए !!  बहनों को सान्तवना दी ...और रिश्तेदारों को फ़ोन किये !! सब कुछ आस पड़ोस और कुछ लोगो ने अंतिम सब किया जो ज़रूरी था !!
                 ये कोई समय नहीं था राहुल की माँ का जाने का !! दिशाहीन और पैसों की कमी के कारन उनका इलाज़ सही ...और सही समय पर न हो सका !! पिता लगभग 15 साल पहले गुजर गए थे ..और अब माँ भी नहीं !! ज़रा अंदाज़ा लगा लीजिये ...उन बच्चों का ...रिश्तेदार आये और तय किया की राहुल को एक नौकरी में मदद करेगे ...आज राहुल नौकरी कर रहा है ...लेकिन एक बात हमेशा कचोटती है उसे ....माँ का इलाज़ सही से ना हो सका ..सही अस्पताल में ...पास में पैसे नहीं थे ...!! उसने एक महत्वपूर्ण कदम उठाया ...बचपने में सुनी एक कहानी और किशोरावस्था में अपने साथ हुए माँ के हादसे से सबक लेते हुए !!  कहानी सुनी थी की जब अच्छे दिन हो तो ..खाने पिने की चीज़ों को जमा कर लेना चाहिए ....बुरे वक़्त के लिए ....!!  जब माँ अस्पताल में भारती थी को वहाँ एक सज्जन ने सलाह दी थी : जब भी नौकरी करो तो अपना मेडिकल बीमा ज़रूर करवाना ....ताकि आपका परिवार दो तरह से ना पीड़ित हो ...एक आप को देख कर और दुसरे ये सोच सोच के की पैसे कहाँ से आएंगे .. ठीक इलाज़ के लिए .....!! एक रोटी कम खा लेना लेकिन मेडिकल बीमा ज़रूर करवाना !! आज राहुल ने अपना मेडिकल बीमा किया हुआ है ...खुश है , ये सोच कर की यदि बीमार पड़ा तो इलाज़ के लिए पैसे का ना होना मुद्दा नहीं होगा !! .....
                  ज़िन्दगी हम सब को समय से पहले बड़ा होने के लिए हमेशा तयारी करती रहती है !!  एक बड़ा कदम हम सबको अपनी ज़न्दगी में ज़रूर उठाना चाहिए .... कुछ रकम अपने ऊपर मेडिकल बिमा करवा कर ताकि आपके असमय कहीं जाने की परिस्थिथि में अकेलापन  ...साथी ना बने क्यों की राहुल के रिश्ते के लोग बार बार बुलाने पर भी शायद इस लिए वहां नहीं आये ये सोच कर के कहीं खर्चे न करने पड़ें ...हमें राहुल की ज़गह खुद को रख कर देखा ...और पाया की ज़रुरत है ...बेहद ज़रुरत है बिलकुल वैसे ही किसी मेडिकल बीमे की जैसे की हमें स्वयं को जीवित रखने के लिए भोजन करना होता है !!
                समय कभी एक सा नहीं रहता , अच्छे समय में उठाया गया छोटा ही सही बीमित होने का कदम आपको मानसिक और आपके परिवार को सहारा देता है ...ताकि सम्मान और सांसारिक बंधन बने रहें लम्बे समय तक !!  सोचियेगा ... अन्यथा सब कुछ तो चल ही रहा है अपनी गति से अब पिछड़ना या साथ चलना हम पर है , वर्ना ,   हम में से कोई भी राहुल हो सकता है !!

Wednesday, October 24, 2012

.... नहीं तो बस सिद्ध कीजिये की आप ही आप हैं !!

              दिल्ली के आकाशवाणी भवन से बाहर निकला तो मेरे हाथ में एक निमंत्रण पत्र था जो उस दिन से मुझे दस दिनों पूर्व सन 1991 में एक सामान्य डाक से मिला था !
                आकाशवाणी के युववाणी के लिए कुछ कविताएँ रिकार्ड करवाने के लिए !
तकरीबन 10 मिनिट्स के लिए 2 गीत मैंने रिकार्ड करवाए अपने अन्य साथीयों के साथ !! वो बड़ा ही सुनेहरा दिन था , तीसरी बार आया था मेरे सामने ये समय , हर बार मैं कुछ सीखता ही जाता था !! 

                रिकार्डिंग के 10वें दिन एक चेक मिला " भारतीय स्टेट बैंक , संसद मार्ग " का एक पत्र के साथ जिसकी पहली पंक्ति को पढ़ कर लगता है जैसे की आप ने ना जाने कितना देश हित का कार्य कर दिया और किसके लिए आपको पारितोषिक दिया जा रहा है .... लिखा है ( है इस लिए लिख रहा हूँ क्यों की वो पत्र अब भी है मेरे पास ) " भारत के राष्ट्रपति की और से .....आपको दिनांक ......आपके द्वारा किये गए कविता पाठ के लिए प्रति पाठ रूपये मात्र 100/- संलग्न चेक भेजा जा रहा है जिसकी अवधि 6 माह है ( अब 3 माह हो गयी है ) ! अब उन दिनों मेरे पास कोई बैंक अकाउंट नहीं होता था  तो ये चेक कहाँ जमा करूं !! किसी बैंक में अकाउंट खुलवाना 1991 - 1995 में कितनी बड़ी बात और पेचीदा बात होती थी ....जो लोग उस समय के होने को पता होगा और मेरे से इत्तेफाक रखेंगे !!   एक रास्ता निकला !! एक बायलर बनाने वाली कंपनी के मालिक स्वर्गीय श्री संजीवा तानिय्यापा सुवर्णा जी के सबसे छोटे बेटे को हिंदी पढ़ता था तो उनकी पत्नी जी ने मेरा अकाउंट अपने बैंक " विजया बैंक " नवयुग मार्किट में खुलवा दिया ! मैंने चेक जमा करवाया और पुछा की सर कितने दिनों में पैसा आ जायगा ?

          मैं पंद्रह दिनों के बाद अपने बैंक पहुंचा ! सुबह के 10.15 बज रहे थे ! सरकारी बैंक अब भी 10 बजे ही खुलते हैं और पब्लिक डीलिंग 2 बजे बंद हो जाती है ! अजीब सी बात है ! अपना ही पैसा ! अपने ही काम के लिए किसी दुसरे की सुविधा के अनुसार प्रयोग में लाये जा सकते हैं !! कमाल है भाई ! वैसे आज कल कुछ निजी बैंकों ने फिर से सरकारी कर्मचारियों को थोडा और समय पर काम करने के किये मजबूर किया तो है !!   खैर हमें अपने सामने बैठे अधिकारी को पुछा की साहब ज़रा मेरे अकाउंट का बैलेंस देख कर बता दीजिये !! ठीक है अपना अकाउंट नंबर बोलिए ....हमने बताया , उन्होंने एक बड़ी मोटी  सी लेज़र जो की दो मोटे मोटे काले काले लकड़ी के दो फ़ाइल नुमा पन्नों को पलते हुए देखा और सबसे आखरी पंक्ति को पढ़ते हुए कहा ...हाँ जी इतना बैलेंस है ... मैंने हिसाब लगाया ...अरे अभी तो वही है जो खाता खुलवाते हुए था ...उन्होंने पुछा कब खुलवाया था ? 15 दिन पहले ....!! अच्छा रुकिए !!उन्होंने कहाँ ...हाँ रुकिए ..एक एंट्री करनी बाकी है ....हाँ अब इतना है !!

            सही रकम के बारे में आश्वस्त होने के बाद मैंने कहा कुछ पैसे निकलवाने हैं !! उन्होंने एक विद्रोवल फॉर्म मेरी और बढ़ा दिया ...इस को भर दीजिये ...! हमें भरा ! फिर उनको दिया !! उन्होंने एक टोकन नुम्बर उस पर लिखा और मुझे एक पीतल का टोकन दे दिया मुझे और कह दिया की वहां बैठ जाइए ...जब ये नंबर पुकारा जाए तो केश काउंटर पर जा कर पैसे ले लीजियेगा !! हम जैसे एकदम विजयी मुस्कान के साथ वहां रखे एक लकड़ी के बेंच पर बैठ गए और अपने चेक की यात्रा को देखने लगे !!
          सबसे पहले टोकन देने वाले साहब ने टोकन दिया और टोकन नुम्बर लिखा विठ्राल फॉर्म पर ! फिर वो चेक चला गया एक और वरिष्ठ अधिकारी के पास , उन्होंने फिर से उसी मोटी सी फ़ाइल को पलता और बस दो बार में ही मेरे अकाउंट वाला पेज निकाल लिया , और समान्तर ही कम्प्यूटर पर कुछ देखा ....और कुछ किया ...बाप रे  उसको करते हुए वो साहब कुछ कुछ सामंजस में थे ....पर कुछ कर गए ...! अब अगले काउंटर पर चेक गया ! ये काउंटर सब से महत्वपूर्ण !! अगर यहाँ से पास हो गया तो पैसा मिलेगा नहीं तो बस सिद्ध कीजिये की आप ही आप हैं !!  वहां क्या क्या की हुआ ..... पहले तो उन्होंने देखा ....टोकन नंबर लिखा है की नहीं , फिर दो मैन्युअल लेज़र में एंट्री है तो उसके होने के प्रमाण सवरूप पहले अधिकारी के हस्ताक्षर हैं की नहीं , फिर वो ही एंट्री कम्पुटर में है की नहीं ....अगर हैं तो उसके होने के प्रमाण सवरूप दुसरे अधिकारी के हस्ताक्षर हैं की नहीं ....चलिए ये दोनों तो मिल गए ...अब बारी आई ...मेरे हस्ताक्षर मिलाने की .... उन्होंने अपने सामने रखी एक अलमारी में करीने से रखे कुछ छोटे छोटे गट्ठों में से मेरे एकाउंट्स के नुम्बर वाले गट्ठे को निकला और वो ही कार्ड निकला जिसमे मेरे दो नमूना हस्ताक्षर थे ...उनसे मिलान किया गया ...तब सब ओके मिला तो वहां से अगले काउंटर पर दिया गया ...वहां नंबर से सैम को बुलाया जा रहा था ... लगभग 15 मिनट्स के बाद मेरा नंबर आया ...मेरा चेक मेरी तरफ ही बढाते हुए उन्होंने कहा अपने हस्ताक्षर कीजिये ...ये कन्फर्म करने के लिए की में ही हूँ ...जिसने वो चेक सबसे पहले काउंटर को अपना चेक दिया था !! और पूरे 1 घंटे के बाद मुझे मेरे ही पैसे मिले .. वाह वो ज़माना !!  और आज सिर्फ एक क्लिक करने के बाद हम निश्चिंत हो जाते हैं की हमारा पैसा सही जगह पर सही समय पर पहुच गया !! मुझे याद नहीं की आजकल मैं अपने बैंक में व्यक्तिगत रूप से कब गया होऊंगा !! जब आज कल की सुविधाएं नहीं थीं तब ये चाहिए था किन्तु ये भी सही है की 50% लोग ...अपने बैंक में व्यक्तिगत रूप से नहीं जाते और ये तक नहीं जानते की वो लोग जो ये सुविधाएँ दे रहे हैं वो दिखने में कैसे हैं .... !! अरे ये क्या बात कह दी मैंने ..ज़रुरत क्या है उनको देखने की ? काम हो रहा है ना !! भाई तो कम तो तब भी होता था लेकिन हम उनको देख पाते थे और मन की भड़ास निकल पाते थे ...पर आज समय पर काम हो रहा है तो भी उनको साधुवाद नहीं दे पाते ...हाँ मन में हुआ तो कस्टमर केयर पर एक इ मेल छोड़ देते हैं .......लेकिन सुना है की इन बैंकों के दफ्तर काफी बड़े और सुन्दर होते हैं ....और कर्मचारी ड्रेस कोड में रहते हैं ...सब सामान दिखने के लिए ...क्यों की सरकारी सोपानो पर  आरक्षण का सहारा भी होता है ना म उस पर ना असर पड़े इस लिए !! 
                     
         


Wednesday, October 17, 2012

.. स्वयं सरीखे कुछ बुत बनाने चाहियें, खुद की तलाश के लिए !!

                   अनमने मन से उठा और बाहर की तरफ देखा छोटे से परदे को बड़ी सी खिड़की से हटा कर ....तो खुला सा समुन्दर अपने पूरे जोश में सब को संभावनाएं बाँट रहा था , रोज़ की तरह ...लेकिन मेरे होटल के किनारे एक छोटी सी दूकान पर उस नन्ही सी जान के लिए कुछ भी नया नहीं था आज ....  उसके लिए बस एक दिन था जिसमे दिन में गर्मी रहती है और शाम को हल्का अँधेरा और शाम को खाना मिला मिला ना मिला लेकिन खुले आसमान की चादर और ठंडी धरती का बिस्तर ज़रूर नसीब में था !!

                बात उन दिनों की है जब हमने नया नया उड़ना / घूमना सीखा था और शहर शहर घूम रहे थे , अधिकारिक यात्रा पर !!  उत्तर के शहर इतने करीब से देखें हैं की कुछ गूढ़ नहीं दीखता ..किन्तु वहीँ दक्षिण के शहर कभी देखे नहीं तो वहां की गलियां तक विशेष लगती हैं ! पोंडिचेरी की गलियों की सैर कर रहे थे अकेले ....पैदल !!  हाथ में डाभ ( कच्चा नारियल , पानी से भरा हुआ ) ले कर , गटकते हुए !! गवर्नर के बंगले से होते हुए जैसे ही गाँधी जी के पुतले की ओर बढ़ते हैं तो कुछ दूरी पर एक रेत से भरा हुआ रास्ता मिलता है  बिलकुल एसा लगता है जैसे की वहां की सरकारी आँखें इस टूकडे को देख नहीं सकीं नहीं तो इसको भी पुरे प्रयास से पथरीला कर देतीं या फिर ये भी लगता है की शायद इस को इस लिए उसके मूल स्वरूप में छोड़ा गया हो की आने वाले लोगों की कुछ सामीप्य लगे ...अपनी ज़मीन से इन पथरीले रास्तों में !!
              उसी रेतीली ज़मीन पर सुबह और शाम को छोटा सा बाज़ार लगता है , अपने शहर और आगंतुकों दोनों के लिए !! वहां दक्षिण के पारंपरिक पकवान के सिवा ,,,उत्तर भारत के भी पकवान मिलते हैं ....जैसे आलू की टिक्की , गोलगप्पे किन्तु उनमे आपको दक्षिण की खुशबू ज़रूर मिलेगी ताकि आपको स्मरण रहे की आप मूल स्थान से हट कर आनंदित हो रहे हैं !!
             चाय भी मिलती है !! मुरुगन उसी चाय की दूकान पर रहता था ! मेरा रोज़ का साथी ! आज कुछ उदास था , चाय भी कुछ फीकी बनी थी ....न चीनी तो उतने ही चम्मच डाली थी ज़रूरी पानी में बस स्वाद आया ही नहीं !! चाय की छन्नी में रखे बारीक कपडे के ऊपर पूरी की पूरी चाय उधेल दी थी उसने कुछ बहार छलक कर उसके हाथ पर आ गिरी तो उसे ख़याल आया की कुछ गलत जो रहा है !!... मैंने पुछा " क्या बात है मनु ? " कुछ नहीं साब .. ठेठ दक्षिण भारतीय हिंदी में जवाब मिला !! कुछ तो है बोल तो मन हल्का होगा ......मैंने इतना कहते हुए उसके कंधे पर अपना उल्टा हाथ रख दिया और कोशिश करी की उसके सर को सहारा दूं .....एसा लगा जैसे उसको कुछ मिल गया हो जैसे मृग मरीचिका .... वो मेरे कंधे और छाती से लगभग चिपक कर रोने लगा ..... ये कहते हुए ...." कोई अपना नहीं है साब ....देख लिया मैंने " !! मैंने उसको अपने दुसरे हाथ से सहारा दिया और उठने के लिए कहा ....और हम चल दिये महात्मा गाँधी की मूर्ति के पास ....समुद्र में सम्भावनाये समेटने !!
              वो दिन आज़ादी का दिन था ...15 अगस्त , कुछ बच्चे छोटे छोटे तिरंगे बेच रहे थे ,,,,मैंने मुरुगन से पुछा लोगे ? हामी में सर हिला दिया उसने !! मैंने कुछ झंडे खरीदे ! मुरुगन से पुछा अब बताओ क्या बात हैं क्यों उदास हो ? वो बोला " साब में पढना चाहता हूँ पर मुझे स्कूल में एड्मिसन नहीं मिला ...और कोरास्पोंदेंस - पत्राचार की पढ़ाई के लिए एक मुश्त पैसे हैं नहीं मेरे पास ...और इस चाय की दूकान पर काम करते करते अगर पढ़ना चाहूं तो मुझे कोई उम्मीद नहीं दिखाई देती की मैं समय पर अपनी पढ़ाई पूरी कर सकूंगा !! .... अच्छा तो तुमने कोई हल तो ढूँढा होगा इस समस्या का ...? मैंने पुछा ! वो बोला हाँ साब ...अगर मुझे कहीं स 2500 रूपये मिल जाएँ तो मैं एक मुश्त फीस भर कर अपनी पढ़ाई जारी रखूंगा और धीरे धीरे पैसे भी चुकता कर दूंगा काम करके ...लेकिन कोई देता नहीं ना ...सब जान पहचान की बात करते हैं की कोई गारंटी दे दे ...जब की मैं इसी शहर का हूँ ...सब मुझे जानते हैं ....मेरे पिताजी और माता जी जब तक सुनामी में नहीं गुजरे थे सब मुझे पहचानते थे अब मेरे पास कुछ नहीं ...तो ये लोग भी नहीं पहचानते ....!!  अच्छा तो तुम इस लिए परेशान हो मैंने मुरुगन की टीशर्ट का कालर ठीक करते हुए कहा ? चलो मूंगफली खाते हैं ....!!  दक्षिण भारत में मूंगफलियाँ सडक पर मिलती हैं ! हा हा हा ....भाई ये तो कोई बाद ना हुई ...मूंगफलियाँ उत्तर भारत के शहरों में भी सड़कों पर मिलती हैं और लोग तो इसको " गरीबों का मेवा " कहते हैं !! खैर दक्षिण में मूंगफलियों को पानी में उबाल कर सडकों पर बेचा जाता है ....मैंने और मुरुगन ने कुछ मूंगफलियाँ खरीदीं और समुद्र की तरफ मुह कर के दीवार पर बैठ गए !!
                 अब मुरुगन के चहरे पर मुस्कान थे ....उमीदों भरी ...पर मैं अब उलझन में था !! मुझे नहीं याद की मैंने उस की क्या मदद करी थी किन्तु इस बात को सोच कर उलझ गया था की .... क्या विचित्र सी बात है की स्वयं के  शहर में व्यक्ति परिचय ढूँढने को बाध्य हो जाता है और अपरिचित शहर में कैसे परिचित होने की सम्भावनाये जन्म लेती हैं !! मुरुगन मुझे मिलता है विभिन्न रूपों में आज भी सपनों में और यदाकदा उन्ही गलियों में मिटटी के दिए बेचते हुए , सुगन्धित अगरबत्ती बेचते हुए , सुन्दर से मुरझा जाने वाली मालाएं बेचते हुए ...अपने ही लोगो के बीच अपरिचित सा ...बस उसी समय जब वो स्वयं के बारे में सोचता है ....अन्यथा सब के समीप है ...सबका अपना है वो , चाय की मीठास रूंधे हुए गले के कसैलेपन को कम नहीं कर सकती !!
                हमें , स्वयं सरीखे कुछ बुत बनाने चाहियें और उनमे खुद को तलाशना चाहिए ...तब जब आपको परिचय की दरकार ना हो ....ताकि जब आप अजनबियों के बीच हों तो कम से कम स्वयं को तो स्वयं का परिचय ना देना पड़े !!  मुरुगन आज बारहवीं कर चुका है , स्वयं को स्थापित कर रहा है और मुरुगनो से परिचित होने के लिए !!!  ये तो सफ़र है , चलता ही रहेगा कभी आपसे मुआकात हो तो कृपया पहचान लीजियेगा , बिना परिचय दिए श्रीमान !! 

Friday, October 12, 2012

...... कम्पित , पत्ते पीपल से !!

मेरा मन ,तुम्हारा मन,


उमीदें , सपने कल के !

नयनों में ही पलते, या

अश्रु होते , अविरल से !!


स्थिरता स्वाति बूंदों की,

परिवर्तन की आस लिए,

भावावेश की आंधी में ,

कम्पित , पत्ते पीपल से !!



Sunday, October 7, 2012

...रेडियो पर कहानियों का सुनना अच्छा अनुभव है, सुन कर देखिएगा, अच्छा लगता है !!

                आज बहुत दिनों के बाद एक कहानी सुनी ...जी हाँ ठीक पढ़ा अपने " सुनी " पढ़ी नहीं !! 

               अब देखिये ना आजकल के इन्टरनेट के ज़माने में हम सब कुछ पढ़ लेते हैं ...सब कुछ , कुछ भी नहीं छूटता ; कोई पर्दा नहीं हाँ वोही पर्दा टाट का ,जो कभी इंटर में पढ़ी एक मिर्जा साहब के दरवाजे पर पड़ा होता था ...सब इज्ज़त को घर की चौखट के भीतर समेटे हुए .... और वो भी पर्दा जिसके होने पर सब है जिसके ना होने का ग़म उस से पूछिए जिसके पास अदद चौखट भी नसीब नहीं , और वो पर्दा भी जो कभी कभी कुछ लोगो की अक्ल पर पड़ जाता है तो मुश्किल होती है पर्देवालों के लिए !!
               खैर ,हम कहानी के सुननाने और सुनने की चर्चा कर रहे थे ...आइये उसी विषय पर ही सफ़र करते हैं ...कहाँ परदे वालों के बीच फंस  गए ....हमारे आप के बीच क्या पर्दा , सब अपना और जाना पहचाना है !!
             मेरे घर का टेलिविज़न अचानक ख़राब हो गया है ! हम अक्सर घर में शाम की चाय के  साथ में और मेरी प्यारी सी पत्नी " रीना " टेलिविज़न पर हो रही किसी देश से जुड़े दिन के ज्वलंत मुद्दे पर चर्चा को देखते हुए पीते हैं !! आजकल मेरी अर्धांगिनी ओने मायके में हैं ....तो शाम की चाय कुछ फीकी लगती है और उसका फीकापन कुछ तब से और बढ़ गया है जब से वो कुछ दिनों के लिए अपने मायके में है ...जबतक वो वापस आये उसकी यादों के सहारे ही चाय पीता था की टी वी भी खराब हो गया !! फिर एक सहारा मिला ...इन्टरनेट का ...फेसबुक का , ब्लॉग का , जीमेल का , याहू का , ऑनलाइन अखबारों का ....ये सब आँख गडा कर देखना होता है !! कब तक एक टक 14 इंच के लेपटोप पर मन बहलाते रहेंगे ....अब टी वी की बात कुछ और है ....वहां तो द्रश्य बदलते रहते हैं ...और यहाँ खुद तय करना होता की क्या देखना है !! कुछ  देर में मन ऊब गया ! फिर ध्यान गया अपने घर के कोने में रखे एक ऍफ़ एम् , रेडिओ , सी दी , केसेट प्लेअर पर ....रीना जब अक्सर घर में उसी को चला कर पुराने , नए गानों को सुनते हुए अपना घर का सब काम निबटती है .... उसे साफ़ सफाई खूब पसंद है और में उसके उलट ... ! सोफे के कपडे को करीने से सजा कर जाती है और में उस पर बैठ कर उसको बेतरतीब कर देता  हूँ ....! वो फिर ठीक करती है !
                     आज मैंने भी उस ऍफ़ एम् रेडियो की ओर अपना  बढाया और उस पर रखे कपडे हो हटा कर चला दिया ....थोडा वक़्त लगा किसी चेनल को  सर्च करने में ...फिर एक गाना सुनाई दिया ..." आ चल के तुझे , मैं ले के चलूँ इक इसे गगन के तले  " ये तो बस मेरे मन की बात हो गयी ...मुझे कुछ अच्छा सा सुंनं था और ये गाना सुनाई दिया जैसे मुझे सही में उस दिशा की ओर ले जा रहा था जहाँ की सब सूनापन और खालीपन काफूर हो जाये ! दर असल ये एक कहानी का हिस्स्सा था जो उस चेनल पर सिलसिलेवार सुने जा रही थी .... !!
                 याद शहर के नाम से एक शहर काल्पनिक जगह के इर्दगिर्द उद्घोषक रोज़ एक कहानी सुनाता है और उसको सिलसिलेवार क्रमशः रखने के लिए हर विराम पर उस विराम की भावनाओं से जुड़ता हुआ कोई गाना सुनाता है ....वो ही था ....!!
            अब तो घर पर नया टी वी भी आ गया है किन्तु मैं अब भी उस दिन के बाद से कोशिश करता हूँ की 9 बजे से 10 बजे के बीच उस चेनल को सुनु और कहानी सुनु ....नानी और दादी से तो स्वयं कोई कहानी सुनी नहीं ....हाँ ये सुना है की नानी और दादियाँ कहियां सुनती हैं .... !! अब तक जो भी कहानी सुनी सब उत्तम हैं !! हर कहानी के साथ हम जुड़ते चले जाते हैं ...और कभी कभी तो उद्घोषक के स्वर के उतार चढ़ाव, बोली में मिठास से एसा लगता है की सब कुछ अपने ही साथ गुजरा बीता हो ...अपने ही जीवन की बात हो ....अब देखिये ना सबसे पहली कहानी जो सुनी उसका नाम थे ...." भगत जी " ....एक ऐसे इंसान की कहानी जिसके जीवन में शादी के 30 सालों के बाद भी औलाद का सुख नहीं था ....बाढ़ में सब ख़तम हो गया था ...गाँव के ही प्राथमिक स्कूल में संस्कृत पढ़ाते थे , और शाम को घर के पास के मंदिर में देवी देवताओं की सेवा करते थे ...रिश्ते नातेदार थे तो 30  सालों से कोई  आया नहीं उनकी सुध लेने ...वो सब गाँव के घरों में जा जा कर उनके काम में बिना मांगे मदद करते थे ...और दिन बिता लेते थे ..जब एक दिन उनको पता चला की उनके भतीजे की शादी उनके ही गाँव के एक बड़े सेठ के घर तय हुई तो ये सोच कर शायद उनको बुलावा आएगा उन्होंने उधार ले कर नए कपडे , चाही के लिए साडी और जुटे खरीद ली ...पर कोई बुलावा नहीं आया ....मन मार कर घर में बैठे थे की उनको एक तरकीब सूझी ....उठे बाज़ार गए कुछ मिठाई लाये और अपनी पतनी संग मिठाई खाते हुए बोले ...पतनी जी ..कोई बुलाये ना बुलाये हम अपने घर पर तो अपने भतीजे की शादी की ख़ुशी मना  ही सकते हैं ....! सही है ...दुखी और खुश होना अपने ही हाथ में हैं !! गरीबी रिश्तो की मजबूती और अमीरी उनके ढीलेपन को परखती है !!
               दूसरी कहानी थी एक इसी लड़की की जिसने अपने परिवार के खिलाफ प्रेम विवाह किया था ....जिसको 10 साल हो गए थे ...मायके की याद आती थी ...अब उसकी बेटी भी   ननिहाल क्या होता है  पूछती थी और वो निरुत्तर हो कर रह जाती थी ! एक दिन एक पोस्ट कार्ड आया ..उसके नाम उसकी माँ का ...लिखा था ...तुझे कभी हमारी याद नहीं आती ....एक बार मिलने की कोशिश तो की होती !! ...कल तेरे पिताजी शहर आ रहे हैं !! बस इतना पढना था की वो सोचने लगी की क्या करून घर को कैसे ठीक करून की पिताजी को अच्छा लगे ...घर के खर्चे की लिए बचे 
पैसों में सिर्फ 300 रूपये बचे और बेटी के जुटे लेने थे और 5 दिन बाकी थे ....इस  उधेड़बुन में थे की शाम हुई और पिताजी नहीं आये ...बेटी का जो मन उसने मारा था उसको जुटे नहीं दिला कर ..
उसको जुटे दिलानी चल पड़ी ..क्यों की उसके पिता ने अपने परिवार को चुना था और उसको भुला दिया था ...तो आज की घटना की बाद उसने भी ठान लिए की मैं भी अपने परिवार पर ध्यान दूंगी ...ये ही मेरा परिवार है !!

           बस इस तरह से और भी दिल को छु लेनें वाली ना जाने कितनी कहानियां , जिसमे अपने  जीवन की सब झलक दिखाई देती हैं ... नेट पर काम करते हुए ये कहानी सुनता रहता हूँ ...साथ साथ में चलते गानों को भी सुनते रहता हूँ !   आजकल कहाँ समय है किसी के पास किसी की बात सुनने का ...पर जब बात कुछ ऐसी हो जो अपनी ही हो और अपने ही तरफ से कही जा रही हो तो ...ज़रूर सुनने की इक्षा होती है ...आनंद तब और बढ़ जाता है जब आप डूब जाते हैं ...शब्दों और भाव में ...
जिसका पता तब चलता है जब किसी कह जा रही बात से आप के मन के भाव आपके नयन के प्याले भर देते हैं किन्तु उनको छलकने नहीं दते ...और गला भर आता है ...और आपके  से मुह से कुछ नहीं निकलता !! स्वयं से जुड़ना कठिन है किन्तु नामुमकिन नहीं ... सहारा कहानी सुनने का लिया जा सकता है !! आगे की कहानियां अपनी पत्नी के साथ सुनूंगा जल्दी ही !!

       रेडियो  पर कहानियों का सुनना अच्छा अनुभव है ,  सुन कर देखिएगा ...अच्छा लगता है !!  

Thursday, October 4, 2012

...... और जंतर-मंतर मर गया !!

                              ....मित्रों मैं जिस रास्ते से अपने दफ्तर जाता और आता हूँ आज भी उस पर कुछ खेत मिलते हैं ... जिनमे मौसमों के आधार पर कुछ न कुछ फसल लगी रहती है .....आज कल धान लगी है , सुर्ख हरे रंगों की घान की ऊपर की और उठती एक एक पौध और उसमे अंगडाई लेती हलके पीले रंगों की बालियाँ ....जी हैं अभी बाद बनना ही शुरू हुआ है ...शाम के लगभग पौने सात बजे में उन खेतों के बीच से हो कर गुजरती हुई सड़क से गुजरता हूँ ...बस सुगन्धित बालियों से निकली हुई खुशबू मेरी नासिका को इस कदर अपनी और आकर्षित कर लेती है की बस कभी कभी तो रुक कर उस का आनंद लेता हूँ ! मुझे मालूम है की खुच महीनो के बाद से सब ख़तम हो जायेगा , बालियाँ पाक जाएंगी और खेत सूने हो जाएँगे ,,,,तेज़ लू चलेगी और सुखी धुल उड़ेगी , लेकिनं ये भी आशा है की फिर से इसमें धान लगे जाएगी इस लिए आज के होने और कल न होकर फिर से होने के मध्य का काल इतना दुःख नहीं देता जितना आज एक खबर ने दिया !!

            आइये उस खबर पर चर्चा करते हैं !! वैसे तो अखबार के माध्यम से किसी खबर पर चर्चा करना कितना उचित और न्यायसंगत है ये आपने कुछ दिनों पूर्व एक प्रदेश के मुख्यमंत्री और एक प्रगतिशील संगठन के मध्य होते विवाद को देख और सुन लिया ही होगा !! फिर भी हम ये हिम्मत करेंगे की उस खबर के आधार पर चर्चा करैं और दुःख प्रकट करैं जो हमने आज पढ़ी , और साथ में जा कर उस खबर का सच भी जाना ...जो अक्षर अक्षर सच निकला ....!!
           एक अखबार में पढ़ा की दिल्ली के जंतर मंतर को वो दर्जा देने से मना कर दिया गया है जिसका वो हक़दार है !! अन्तराष्ट्रीय धरोहर का !! क्यों की उस अन्तराष्ट्रीय संस्था ने पाया की जिस विशेषता के लिए जंतर मंतर जान और पहचाना जाता है ....मौके पर उसको वैसा नहीं पाया जा सका , अतः अन्तराष्ट्रीय धरोहर नहीं कहा जा सकता !!  एक बात साफ़ कर दें की जंतर मंतर में स्वयं एसा कुछ नहीं हुआ की उसकी पहचान कम हो गयी है .... उस को जबरदस्ती ...धीरे धीरे मारा गया !! आज जंतर मंतर उस फूल की तरह हो गया है जो खिला हुआ है ...जिसमे चटक रंग भी है ...जिसमे मकरंद भी है ...परागकण भी हैं ....किन्तु उसको एक शीशे के घर में क़ैद कर दिया है जिस पर कभी तितलियाँ नहीं बैठ सकती , जिस पर कभी परागकण ले कर मधुमखियाँ अपनी मिठास की गगरी में उसका योगदान नहीं ले सकती !!
           हुआ क्या ? जैसा की हम सब जानते हैं की जंतर मंतर एक यन्त्र है जो की सूरज की किरणों के आधार पर करता है ...और गड्नाओं के आधार पर समय का पता लगाया जाता है ! भारतीय और अन्तराष्ट्रीय दोनों !! सतरहवी शताब्दी में इस का निर्माण करवाया गया था जब घड़ियाँ नहीं थी !! सूरज की किरणों के आधार पर सटीक समय की गद्नाये की जाती थी !! आज इस के यंत्रों के ऊपर सूरज की किरणे ही नहीं पहुच पाती ....चारो और ऊँची ऊँची इमारतें कड़ी हो गयी है ....जिसके करने जंतर मंतर में प्राण तो हैं किन्तु वो स्वयं संवादहीन हो गया है !!
           बचपन से सुनते आ रहे हैं ...दिल्ली में एक जंतर मंतर है ! कई बार वहां गए भी ! आनंद लिया ...उस इमारत का जिसको कितने मन से बनवाया गया है !! आज उसका गला घोट दिया गया ! कितने ही आन्दोलनों की जन्स्थाली आज स्वयं निर्जीव सी हो कर पड़ी है !! कितने ही आन्दोलनों को जीवित रखने वाला जंतर मंतर आज स्वयं मरित्श्य्या पर है !! कितने की आन्दोलनकारियों की आवाज बन्ने वाला जंतर मंतर स्वयं अपने लिए एक आवाज खोज रहा है !! 1982 के एशियाड खेलों का शुभंकर रह चूका ये ...आज अपने अशुभ समय को कोस रहा है !! आज भी कितने आन्दोलन हो रहे हैं इसकी दीवारों के इर्दगिर्द ! कितने लोगो का घर बन चुकी इस की दीवारें अपने लिए एक अदद सहर ढूंढ रही है जो इसकी आवाज़ बन कर कुछ कहे सरकार से की कुछ करिए ...मैं ही था जब समय घड़ियों में बही था ...! एसा लगता है सच में समय आगे निकल गया है ...तेज़ रफ़्तार से चली ज़िन्दगी में कहीं पीछे छूट गया है ...हमारा जंतर मंतर ....लिकिन है तो !! नै पीढ़ी जिसको इसके मायने नहीं पता ...क्या सोचेंगे इस ईमारत के बारे में ....क्या बनाया था लोगो ने टेढ़ा मेधा ...दीवंरें पूरी भी नहीं बनवाइय ....!! उनको कुछ दिशा देने वाले दिशानिर्देश क्या उम्मीद तब तक वहां रहेंगे भी की नहीं !!!!

               विदेशों में सुनते हैं की पूरी की पूरी इमारत को एक स्थान से दुसरे स्थान पर विस्थापित कर दिया जाता है !! हमरे नेता और नौकरशाह तो पूरी दुनिया में घुमते हैं ....शायद किसी को ये तरकीब सूझे जंतर मंतर के बाबत , ऐसी हैं उम्मीद करते है !!  दिल्ली के जंतर मंतर सरीखा के और जंतर मंतर है ...जयपुर में ....मैंने देखा है ...हवामहल से साफ़ साफ़ दिखाई देता है ! जी हैं अभी उसके चारो और सब साफ़ है ! ऊँची दीवारें नहीं बनी !! किसने कहा की इमारतें ऊँची हों तो ही तरक्की होती है !! एक बड़े देश की सबसे ऊँची इमारतो को गिरते देखा है हमने ,  दुनिया का सबसे विक्सित देश है ...फिर भी इमारतें गिर गयी !! धरोहर सम्हालानी चाहिए !! हमें कुछ तो मिला है पूर्वजों से , कुछ नया अपनी आने वाली पीढ़ी को दे नहीं सकते तो पाया हुआ ही संभाल कर हस्तांतरित कर दिया जाये !! 
                  अपनी विशेष पहचान और मनमोहक कलाकृति के कारण हमेशा याद किया जाता रहेगा ...किन्तु आज भी उसमे वो सब है जिसके लिए वो जाना जाता है ...बस उस तक सूरज की किरणों के  आने का इन्तेजाम करना होगा , वैसे ही जैसे हम अपने घरों में आगंतुक के लिए द्वार खोल देते हैं ....और अपनी निगाहें  द्वार पर लगा कर टकटकी कगाये उसके आने का इंतज़ार करते हैं ....आज जंतर मंतर उसी इंतज़ार में हैं ....
और सूरज की किरणे उस से दूर हो चली हैं ...बहुत दूर व्यापारिक संस्थाओं की इमारतों के पीछे ...जहाँ व्यापार
आ जाता है वहां अपनापन ...........मर ही जाता है ........ और जंतर - मंतर मर गया !!
                                                                                                                 आपका अपना - मनीष

आपकी सुविधा के लिए उस अखबार का लिंक दे रहा हूँ ....  



Saturday, September 22, 2012

..... चिंताएं सर्वदा ही परिष्कृत होती रहती है !

             याद कीजिये अपनी क्लास 2 की उस हाफ पैंट को जिसपर की कोई भी क्रीज़ नहीं होती थी और बेल्ट स्कूल के ही बिल्ले के साथ इंतनी टाईट बंधी होती थी की सुबह सुबह के खाली पेट मे भी आधा पराठा ठीक से नहीं जा पता था और इतनी सलवटें की पैंट ...पैंट कम झोला ज्यादा लगती थी ....और हम उसी में खुश थे , चिंता थी तो बस इस्कूल में प्रार्थना के शुरू होने से पहले पहुच सकें ...वरना लेट आने वाले बच्चों की लाइन में लगना पड़ेगा ....और अगर एक बार भी एसा हुआ तो फिर पहले क्लास टीचर , फिर प्रिन्सिप्ल और अंत में पूरी क्लास में छुट्टी की घन्टी बजने तक पूरी कलास के दिन भर दिए जाने वाले ताने ....बाप रे बाप कितना जुल्म था उन दिनों ....!! ये ही चिंता थी बस लेनिन उन उन् दिनों !
           समय बीता अपने पास का ज्यमितिये बक्सा और उस में का सामान पूरा होने की चिंता ...एक दो चिली हुई पेन्सिल ज्यादा रख लेते थे ताकि पिरीअड में दिक्कत ना हो ! दसवीं से समय रात दिन की पढ़ाई ....और फिर इस्कूल के रस्ते में मिलने वाली कोई .....जिसको हमारे जन्नाने में हम खूब अछे लगते थे से भेंट ...बस निगाह भर .....! जूते मोज़े सजीले होते थे , अगर तै का चलन होता तो वो हमेशा सीधी होती / या होनी चाहिए ...! फिर परिणाम की चिंता और जल्दी से परिणाम आजाये तो फिर कुछ वोकेशनल कोर्स की तलाश ...अ फिर बारहवीं में एड्मिसन की चिंता ...क्या पता कम प्रतिशत में विज्ञान मिलेगा भी की नहीं ...भले हम विज्ञान केलायक ना हों किन्तु एक दोस्त ने वो विषये चुना हो तो हम भी वो ही लेंगे ....ना मिल्पाये तो कला से ही डिग्री पा लेंगे या सोच कर कम से कालेज में दाखिला तो मिले !! कुछ और बड़े हुए तो ...जूते छोटे होगये ...बदलने की चिंता किन्तु लकी होने के कारन उन्हें छोड़ने का मोह और नए कैसे होंगे की चिंता ....! गग्रेज़ुएत हो जाएँ तो बस कोई नौकरी मिल जाने की चिंता !! नुकरी मिली तो हम दिशाहीन !! क्या ये ही सही रहेगा अपने लिए ...की चिंता !! घर को खूब सजा देंगे ...के लिए कुछ नया खरीदें लिकिन हात में अपने पैसे न होने की चिंता ....कैसे कुछ ज़यादा कमाया जाए ...की चिंता !! चलिए अब जब नौकरी मिल जाये तो जहाँ हैं वहां से और ऊपर की और की तरक्की की चिंता , चलो तरक्कि भी हो गयी ...तो वंश की चिंता .... शादी ब्याह हो जाये उसका अपना आनंद जिम्मेदारिओं का और चिंता के स्तर का , उपलब्धियों का !

            मैं यहाँ एक विशेष समय को लेकर ज्यादा केन्द्रित हूँ की ये सही है की समय , आयु और संबंधों के साथ साथ आपकी चिंताएं बदलती और घटती और बढाती रहती हैं ....जिनको समझदारी से निभाया और पूरा किया जाता है ....फिर भी एक समय होता है आपके जीवन में जब आपको कोई चिंता नहीं होती और सब आपकी चिंता करते हैं ....पर उस समय को सब लोग नहीं जी पाते ....आइये उस पर बात करते हैं .....
        
          पिता जी , माँ सब ध्यान से आपके हर सामान को जुटाने में लगे होते हैं ...और आपके सामने आते ही आप किसी ना किसी बात पर उसमे नुक्स मिकल देते हैं ... रंग अच्छा नहीं है ड्रेस का , जूते इसे नहीं वैसे वाले चाहिए थे, कल टिफिन नहीं केक ले जाने का मन है ....आज दूध नहीं पियूँगा , सेब अच्छा नहीं लगता , घिया बाप रे ये किस चीज़ की सब्जी बना कर रख दी , दाल ओहो हो ..मुझे दाल नहीं खानी ..कढी में से खट्टी खट्टी बदबू आती है ....अनार इसके दाने आपने धोये क्यों नहीं ...? कल ही तो ये टी शर्ट पहनी थी आज दूसरी दो , आप ने मेरी चाकलेट तोड़ी क्यों ? मुझे साबुत खानी है ....! टेबल का लेम्प ज्यादा रौशनी देता है ...लो वोल्ट का बल्ब लगाइए तो पढूंगा !! पेंसिल छोटी हो गई है ....दूसरी दीजिये , रबर सफ़ेद होगी तो ही स्कूल जाऊंगा !! मेरे ग्लास से दीदी , भैया ने क्यों पानी पिया ....मुझे नया ला कर दो !! पहले टीवी पर कार्टून लगाओ तब डिन्नर खाऊंगा ! पहले बोलो की कल मुझे वहां ले चलोगे तो होमे वर्क करूँगा .....और अंत में आप घोडा बनो मुझ को घुमाओ नहीं तो में सोऊंगा नहीं .....और ना जाने क्या क्या ....!!
         जिन लोगो ने ये सब या इस से भी ज्यादा सुख और करीबियत का आनंद लिया है ...उनको बधाई ...! किन्तु सब लोग इस प्रकार के सुख लायक अपने को नहीं पाते .... जो है बस वो ही है ....विकल्प नहीं ....कोई !!
         चिंताएं सर्वदा ही परिष्कृत होती रहती है ...किन्तु अवय्श्क ये है की उनको जिया जाए उनके मूल स्वरुप में , निभाया जाये , संप्रेषित किया जाए उन तक जिनको आभास तक नहीं उनका ...किन्तु संवेदना के साथ , विनय के साथ , आभार के साथ ....समर्पण के साथ ....!!

Wednesday, September 19, 2012

..... हम सब एक सफ़र पर ही तो हैं !! ....यात्रा और मेरी भावनात्मक उपलब्धि !!

               हम सब ....जी हाँ ...हम सब अपनी अपनी सभी भौतिक उपलब्धियों के विषय में जब भी मौका मिलता है ज़रूर अपने अपनों के साथ चर्चा करते हैं !!

                  आइये में आज अपनी भवनात्मक और स्नेहात्मक उपलब्धि के विषय में आपसे बातें करता हूँ ......!! ये कोई 8 दिनों पहले की बात है ...दोपहर के कोई सवा तीन बजे का वक़्त हो रहा था मैं और मेरे एक सहयोगी अधिकारिक कार्य से कलकत्ता जाने की तय्यारी में थे ...वो ग्रेटर नॉएडा से और में गाज़ियाबाद से दिल्ली के इंदिरा गाँधी अन्तरराष्ट्रीये हवाई अड्डे पर पहुचे ! अपने उड़नखटोले में पहुचने तक जो भी नियमावली के अनुसार काम करना होता है हमने किया और लाइन लगा कर अपने उड़नखटोले में सवार हो गए ! 
               उड़ान थी इंडिगो की 6इ - 365 और हमारी सीट थे 2बी और 2सी , मैं किनारे वाली सीट पर बैठ गया ! एक एक कर के हमारे साथ कलकत्ता के लिए उड़ने वाले लोग आ रहे थे और अपने अपने नियत स्थान पर विराज रहे थे ! कितना अनोखा और नित नवीन नज़ारा होता है वो ....मैं तो हमेशा पूरी यात्रा का बस वो समय ही जीता हूँ जब मैं अपनी सीट पर बैठ कर आने वाले सब लोगो को देखता हूँ ....सच में अनोखा अनुभव होता है ! विभिन्नं प्रकार के पोषकों में , विभिन्न तरह के केश सवारे हुए , हर एक के चहरे पर अलग अलग तरह की भावनाए और गरिमा का मिश्रित तेज़ ....होता है ... वायुयान में सफ़र करना कम से कम भारत में तो अभी 2012 तक का सबसे महंगा सार्वजनिक सफ़र है ....इस लिए भी ...किन्तु जब आगंतुक दरवाज़े पर आ कर देखता है की उस से पहले से कई लोग वहां बैठे हैं तो वो नवीनता
और अपने को विशेष स्तर का समझने का भाव गुल होजाता है और चहरे पर कुछ मिश्रित भाव निर्मित होते हैं !!

            में अपनी सीट आर बैठ कर सब को देख रहा था की अचानक मुझे लगा की ये चेहरा मैंने पहले भी कभी देखा है .....मैं सोच में पड़ गया .....एक साधारण सी महिला ...सफ़ेद बालों की लम्बी चोटी बनाये हुए , माथे पर चन्दन का तिलक , हाथ में सोने का कंगन , और दुसरे हाथ में सुनहरी घडी , मुह में पान .... खाते हुए धीरे धीरे मेरी और बढ़ी ...और मेरे से अगली सीट पर बैठ गयीं ....उनके हाथ में एक पर्स भी था ...क्रीम रंग का ! उनके साथ एक और युवती थीं !
             मैं इस उधेड़बुन में लग गया की इनको कहाँ देखा है और मुझे वो याद क्यों नहीं आ रहा ...की अचानक याद आया ...मैंने अपने साथी से कहा ...ये मशहूर शाश्त्रीय गाइका श्रध्ये गिरिजा देवी जी हैं और में उनका आशीर्वाद लेना चाहता हूँ ...! मैं अपने को रोक नहीं सक रहा था ! मैंने उनके साथ की युवती से आखिरकार पूछ ही लिया ...ये वो ही हैं ना ? उन्होंने मुस्कुराते हुए हां में अपना सर हिला दिया ....बस फिर क्या था ....मैंने  गिरिजा जी के चरण स्पर्श किये और आग्रह किया की उनके साथ एक चित्र लेना चाहता हूँ ....उन्होंने अनुमति दे दी ...और मैं उनके चरणों में बैठ गया ...और उस युवती से ही चित्र लेने को कहा ...और बस हो गया !! वो चित्र आपके लिए संलंग्न है इस ब्लॉग के साथ !! गिरिजा जी के विषये में बहुत सी जानकारियां नेट पर उपलब्ध हैं ! एक लिंक आप के लिए !  Girija Devi - Wikipedia, the free encyclopedia

           फिर वो 2.30 घंटो का सफ़र इतना उर्जा भरा रहा की ...थकान काफूर हो गयी और हैं उत्साहित होते गए ...गिरिजा जी का सानिध्य पा कर ! एक गरिमावान एवं आदरणीयों का साथ अपनों भी सही दिशा की और अग्रसर करता है , जैसे जो कुछ गंधी दे नहीं हो हूँ बास सू बास !! खुशबू रखने वाले का साथ भर हो तो भी आप स्वयं को खुशबू के वातावरण में ही पाते हैं !!

        ये मेरी भावनात्मक उपलब्धि थी !! यात्रा संस्मरण लिखता रहूँगा और यात्राएं करता रहूँगा .......हम सब एक सफ़र पर ही तो हैं !!
                                                                    -- ::  आपका मनीष

Sunday, September 2, 2012

मौन की बूंदों की आवाजें, सन्नाटों का हल्का शोर !

...................................   नमस्कार ......!!

कुछ दिनों के अंतराल के बाद फिर मुखातिब हूँ , नवीनतम के साथ ... ।

मौन की बूंदों की आवाजें,    सन्नाटों का हल्का शोर !


स्वयं से मिलना ऐसा जेसे, नदिया के दो अपने छोर !!

                                                                                      - मनीष

Wednesday, August 15, 2012

जैसे , अधिक काफी की मात्रा ,कड़क ना हो कर कडुवी जाती है !

                  ये ही कोई मध्यरात्री के बाद कुछ एक घंटा बीता होगा ....मैंने घडी देखी हो रात के लगभग एक बज रहे थे .....और मेरी गाड़ी तमिलनाडु में " के कामराज " हवाई अड्डे से पोंडिचेरी ( पुद्दुचेरी ) के लिए निकल रही थी ! सफ़ेद रंग की एम्बेसेडर नोवा गाड़ी थी ....साथ में सफ़ेद रंग के ही परदे लगे थे , एक शानदार और सुहाना सफ़र होने वाला था चेन्ने से पोंद्य्चेरी तक का !!   वैसे तो कई बार गया हूँ वह किन्तु इस् बार का सफ़र रात , नहीं नहीं देर रात का था ! मेरा यान लगभग 2 घंटे विलंबित हो गया था , बंगलुरु में ही एक घंटा रुक गया था !!
                  उस सडक को जिस पर से हमें हो कर गुजरना था को ईस्ट कोस्ट रोड बोलते हैं .....क्यों की वो भारत के सुदूर पूर्वी किनारे - किनारे से गुजरती है ....एक तरफ कभी-कभी अथाह जल लिए समुद्र होता है और दूसरी तरफ सपाट धरातल जिसमे अधिकतर समय धान की बालियाँ लहलहाती मिलती हैं ....सुर्ख हरे रंग में , किन्तु आज में उनके दर्शन नहीं कर सकूंगा क्यों की रात में चन्द्रमा ने अपनी चांदनी से उस सुर्ख हरे रंग को एक अनोखे रंग में तब्दील कर दिया है ....!!
                 तमिलनाडु में आपको स्वयं कोई ना कोई बहाना मिल जायेगा जिस से की आप की धार्मिक आस्था को और बल मिले और आप उनका निर्वहन कर सकें !!  थोड़े थोड़े अंतराल पर आपको नमन करने का अवसर मिल ही जायगा , कही कोई बड़ी ही विशेष कारीगरी और चटक रंगों से बने छोटे बड़े मंदिर मिल जायंगे , अनोखे किन्तु सरल तरीके के गिरजाघर और भी अन्य धार्मिक स्थानों के दर्शन हो जायेंगे ! एक मंदिर तो विशेषतः इस रस्ते पर सिर्फ ड्राईवर लोगो के लिए ही है , वो देवता सब ड्राईवर लोगो के लिए बड़े ही श्रधेय हैं ! पुरे रस्ते पर आपको कच्चे नारियल के तुकडे मिल जायेंगे ...जो की एक ही बार में फोड़े गए होते हैं देवता के सामने !
              लगभग रात के 2 बज चुके थे और मुझे भूख लग रही थी ....मैंने अपने ड्राईवर से कहा " कुछ खिला दीजिये " बोला " सर - आपके लायक इस रोड पर पोंडिचेरी से पहले कोई खाने का स्थान नहीं है .....मैंने कहा भाई कोई ढाबा भी हो तो रोक लेना .....हम आस लगाये आगे बढ़ रहे थे की एक गाँव जैसा रौशनी वाला कुछ दिखाई दिया ....और फिर एक छोटी सी दूकान दिखाई दी जो की रात के 2 बजे भी चल रही थी ....कुछ लोग टेबल पर बैठे थे और चुल्लेह के ऊपर रखे तवे पर से भाप उठती दिखाई दे रही थी !
                  हमने रुक कर पुछा तो पता लगा की डोसा और इडली मिल सकते हैं ....और कहेंगे तो काफी भी मिल जाएगी ....जैसे किसी तपते रेगिस्तान में किसी को कोई ठन्डे पानी के लिए पूछ ले और कहे की कुछ मीठा भी कहेंगे तो कैसी फीलिंग होगी ....बस वैसा ही महसूस किया मैंने और हामी भर दी !! उतर कर हाथ धोये और छोटी सी झोपड़ी नुमा दूकान के भीतर सर झुका कर घुस गए ....सर इस लिए झुकाना पड़ा क्योंकि वी छप्पर इस तरह से बना था की किसी भी 5 फुट के इंसान को झुकाना ही पड़े ....ये सब बारिश और कड़कती धुप से बचने के लिए किया जाता है ...भले ही रात में ये ज्यादा व्यावहारिक ना लगे किन्तु दिन के और बारिश के समय ये ही अतिआवश्यक है ! अन्दर गए - ऑर्डर किया - डोसा ...और काफी ! तमिलनाडु में दरअसल में डोसा नहीं बोला जाता ....वो डोसा को डोसाई बोलते हैं ...छोटे छोटे दो डोसे मेरे सामने थे चटनी और साम्भर के साथ ! कुछ लग सा स्वाद था ! अमूमन हम दिल्ली या उत्तर भारत के शहरों में जिस तरह के डोसे , इडली या साम्भर खाते हैं वो कुछ अलग तरह से होता है ....किन्तु वहां जहाँ पर उसका मूल है , वहां का स्वाद कुछ अलग मिला ....ज्यादा खट्टा , तीखा , कम तेल , चटनी में नारियल और दाल का अधिक्क्य और साथ में एक लाल रंग ली तीखी चटनी ! इडली भी खाई , काफी भी पी , कुछ विशेष बर्तन थे वो ! एक बड़ी कटोरी में उल्टा रखा हुआ गिलास और कटोरी में डाली गयी काफी !! दरअसल ठंडा कर के पीने में आसानी होती हैं इस तरह के बर्तनों में ! खा पी कर आगे चले  , और कुछ पौन घंटे में पुदुचेरी की गलियों में आ गए .....!

          रात के तीन बज रहे थे , यकीन मानिये सड़कों पर सफाई कर्मचारी सफाई कर रहे थे ! पूरी की पूरी सड़कों पर सफाई का काम चल रहा था !! मुझे लगा शायद कल कोई बड़ा नेता या अधिकारी आने वाला होगा तो ये सब हो रहा होगा , किन्तु जब सत्यता पता लगी तो यकीन ही नहीं हुआ !! दरअसल पोंद्य्चेरी में आज भी कुछ नियम पुराने समय के चल रहे हैं ....ये एसा मानिये जो नियम पुराने समय में अच्छे थे को वहां के नगर निगम ने वसा का वैसा ही स्वीकार कर लिया है !!  दरअसल पांडिचेरी में पुराने समय से ही रात में सडकों की सफाई हो जाती थी और आज भारत और पोंडिचेरी के आज़ाद होने के भी भी वोही चल रहा है ....रात में सड़कों पर करीने से सफाई होती है , पानी  छिड़का जाता है , कूड़ा उठाया जाता है ...ताकि जब आप सुबह को अपने अपने गंतव्य की तरफ जाएँ तो आपको एक स्फूर्ति भरा वातावरण मिले ! सुगन्धित वातावरण मिले !  ये उन सफाई कर्मचारियों के लिए भी ज़रूरी और अच्छा है , उनको रात में किसी भी प्रकार से ट्रेफिक का सामना नहीं करना होता और नागरिकों को धुल मिटटी , दुर्गन्ध से सामना नहीं करना होता !  मुझे ये बहुत ही मनभावन लगा ! हमारे अन्य शहरों को भी कुछ इस तरह के इन्तेजाम करने की सम्भावनाये सोचनी चाहिए !! जो अधिकारी नए नए अपने अपने पदभार संभाल रहे हैं उनको कुछ अच्छी सोच को प्रयोगात्मक रूप में पहल / चलन में लाना चाहिए !!

संवेदनशीलता ,जबतक प्रायोगिक ना हो परिभाषित नहीं करी जा सकती !                                           

अधिक  प्रयोगात्मकता , संवेदनहीनता का उदाहरण बन भी सकती है !! 

जैसे , अधिक काफी की मात्रा ,कड़क ना हो कर कडुवी जाती है !      

Monday, August 13, 2012

" बाइस्कोप " में तो बस समर्पण ही समर्पण है !!


            " बाईस्कोप " -   जो लोग 35 से 40 वर्षो के हो चले होंगे उनको इस शब्द से अनजानेपन का कोई कम्पन नहीं महसूस हो रहा होगा !!

             तब में शायद पांचवी ये छठी क्लास में पढता रहा होऊंगा तब की ही बात है ! घंटाघर के रामलीला मैदान पर हर साल की ही तरह दशेहरे के मौके पर "मेला " लगा था ! पुरे मौहल्ले से टोली की टोली जा रही थी घूमने के लिए !! बुजुर्गों की , युवाओं की , किशोरों की , घर की महिलाओं की और उनके साथ बच्चों की .... ! कोई बहुत ज्यादा रूपए पैसों को ज़रुरत नहीं होती थी उन दिनों , बस कुछ खास मौकों पर पहनने वाले कपडे और 100 - 200 रुपए ....बहुत हुआ करते थे  !!
               कहीं समोसे , कहीं आलू की टिक्की , कही फेनियाँ , कही पर सुगन्धित केवड़े वाला दूध वो भी कुल्हड़ में , कहीं चाट , कहीं फलों की चाट , कहीं पूरा खाना , कहीं गोलगप्पे और फिर झूलों की बारी ....सर्कस , मौत का कुआँ और चलता फिरता स्टूडियो  - इम्पाला में फोटो खिच्वाइये या फिर कश्मीरी पोशाक में .....बिलकुल पता ही नहीं चलेगा की आप ही कभी कश्मीर गए थे या विदेश में कब घूम कर आये ! कहीं गुब्बारे , कहीं तरह तरह की सीटियाँ, विशेष तरह के खिलौने , चीनी मिटटी के बने बर्तन ....और अचार रखने वाली बर्रनी !  अत्यंत धार्मिक पुस्तकों की दूकान , कपड़ों की दूकान , रंग बिरंगी मिठाइयों की दूकान ! साथ में कभी कभी उद्घोषणा करते भोपू - भाइयों और बहनों ...आज हनुमान जी को सीता मैया अपनी स्मृति चिन्ह के रूप में अपनी " चूड़ामणि " देंगी ...आइये और रामलीला का आनंद लीजिये ...मंच सज चूका है और राखी कुर्सियां आपकी प्रथीक्चा कर रही हैं ......अब बड़ी ही संजीदगी से कहता हूँ ....भी इतने भीड़ भरे मेले में से शायद ही १० प्रतिशत लोग इस आवाज को सुन पते होंगे और जितनो ने सुना उनमे से ३ प्रतिशत लोग वहां जा कर राम लीला देखते होंगे ....हाँ जो बैठे होते हैं उनको अपनी थकान मिटानी होती थी तो बैठ कर सुस्ता लेते होंगे ....रामलीला कौन मन से देखता है ....सबके अपने घरों में ही लीला कुछ कम होती है क्या ....और इसे मौकों पर लोग अपने रोज़मर्रा के झंझटो से थोडा सुकून पाने के लिए जाते हैं और वहां भी वो ही तनाव देखने को मिले तो ..........कम से कम मैं तो नहीं देखता था......हाँ देखता था एक विशेष चीज़ ......" बाइस्कोप "

          आजकल कभी कभी दिख जाता है .....किन्तु देखा नहीं जाता !!

                 बहुत दूर हो गए हैं हम इस से ....! इसमें होता था , दिल्ली का कुतुबमीनार , अगरे का ताजमहल , गोलकुंडा का गुम्बद , काशी का कशिविश्वनाथ मंदिर , दिल्ली का बिरला मंदिर, मुंबई - तब बॉम्बे का गेट वे ऑफ़ इंडिया , दिल्ली का इंडिया गेट ! राष्ट्रपति भवन , लाल किला और ना जाने क्या क्या ! एक मोड़ के रखे जा सकने वाले टेबल पे रखा हुआ एक एक तरफ से त्रिभुजाकार बक्सा ....जिसमे तीन तरफ छोटे छोटे गोल गोल छेद होते हैं ....जिनमे से अन्दर झाँक कर देखा जा सकता है !!  और अन्दर बेटरी  से जलने वाला बल्ब लगा होता है ... जिससे सब साफ़ दीखता है ....और बक्से के ठीक ऊपर एक गोल घुमाने वाला लीवर होता है जिसके एक किनारे पर अन्दर लाल किले से ले कर कुतुबमीनार तक की रील बंधी होती है ....जो बस एक चोर से दुसरे चोर पर कोई ५ मिनट में आ जाती है ...और सब देखने वाले पुरे भारत के दर्शन कर लेते हैं ....जबकि आज कल सन २०१२ में भी भारत में सबसे तेज़ चलने वाली उत्तर रेलवे की मुंबई राजधानी ( भोपाल शताब्दी को छोड़ कर ) से भी लगभग १६ से १७ घंटे लगते हैं ......!! वह कमाल है .....ना ना था ,,,,,,,,,उन दिनों ....   
                        आजकल बाइस्कोप तो है ...हर एक के पास किन्तु उसमे सिर्फ अपने मतलब के चित्र लगे हुए हैं या लोग अपने मतलब के ही चुनिदा चित्र लगाते हैं ....देखते भी खुद हैं और परिवर्तन भी खुद के लिए ही अनुमोदित करते हैं ....किन्तु लाभ का जब भी सरोकार होता है तो वो सब सामान्य से अलग वर्गों के मुताबिक ही चाहिए ....तब उन्हें अलगाव पसंद है ...किन्तु जब संज्ञात्मक या प्रचारात्मक द्रष्टिकोण हो तो बाइस्कोप में सिर्फ अपने मतलब के ही चित्र चाहिए .....वो जो बाइस्कोप चला कर दिखता है शायद वो स्वयं उन जगहों / तजुर्बों से मुखातिब ना हुआ हो जिनको वो सलीके से दिखा रहा होता है ....किन्तु जब वो आपको वो सब दिखता है हो एक मंझे हुए खिलाडी की तरह व्यवहार करता है ताकी उसपर विशवास बना रहे और मनोरंजन एवं मुलाकातों का रिश्ता बना रहे , हर अगली मुलाक़ात पर वो इसे और सुदृढ़ करने की कोशिश करता है .....भले ही कुछ बचपन से साथी बड़े हो रहे हों और दुनियादारी के साथ साथ मौकापरस्ती से ग्रसित हों.....!!
           बाइस्कोप में जड़ता होती है ....किन्तु अविरलता के साथ साथ ....जिसका हर नयन के जोड़े को पता होता है किन्तु फिर भी वो देखता है .....क्यों .....क्यों की वो चाहता है की जीवन की सतत तरलता का गीलापन कभी कभी सघनता को  तलाशता है , हाँ समर्पण के साथ , " बाइस्कोप " में तो बस समर्पण ही समर्पण है ....पूर्णतः !!



Sunday, August 5, 2012

" ग्राहक राजा होता है ,और राजा मोलभाव नहीं करते !! "

               कल एक दुकान पर गया, मुंबई के अँधेरी स्टेशन के पूर्व तरफ  ....जहाँ लिखे एक सूचनापट को पढ़ कर अच्छा लगा साथ ही एसा भी लगा की अपनी बात कई तरह से कही जा सकती है ,सही है जो मूल भावनाओ को एकदम वैसे ही रख कर प्रभावी ढंग से कहा जा सकता है ! उदहारण के तौर पर ये ही जो ये थी !!

        " ग्राहक राजा होता है  ,और राजा मोलभाव नहीं करते !! "

      एक ही पंक्ति में सब को सन्देश ! बुरा लगने वाले वाक्य :

" आज नकद कल उधार "

या

" एक दाम की दूकान  "

या

 " उधार मांग कर शर्मिंदा ना करें !!"

         इसी तरह से रिश्ते होते हैं , आप के द्वारा दी जाने तवज्जो पर निर्भर !!

बस शब्दों का हेरफेर

है और भाव बदल जाते हैं जिनके साथ साथ रिश्तों की दिशा और दशा तथा उम्र बंध जाती है !

रिश्तों में वैसे तो वक़्त का अहम् रोल है , किन्तु समय और विषय के मेल के शब्दों का चयन   "वक़्त " को कम कर देता है तथा सामीप्य को जल्दी लाता है !!

Friday, August 3, 2012

...उस डोरी को खीचता है तो वो घंटी धीर से बज जाती है तन्न्न से ....

               वैसे तो कई बार मायानगरी मुंबई आया हूँ ....और घूमा हूँ किन्तु इस बार कुछ बदलावों ने अपनी और मेरा ध्यान खीचा , जिनका रेखांकित किया जाना मेरे लिए ज़रूरी है !
               ये कोई वर्ष 2003 के अंतिम महीनो की बात रही होगी ! एक अधिकारिक कार्य से मुझे मुंबई आना पड़ा , अपने एक वरिष्ट अधिकारी के साथ ! कुछ वेशेष होने जा रहा था हमारी कंपनी में , जिसके लिए एक विभाग के विभागाध्यक्ष के सहायक के रूप में मेरा चयन हुआ ! कोई सितम्बर महीने की बात होगी ...हाँ दिनांक 28 नवम्बर 2003 को में आया था ! फिर लगभग 1.5 वर्ष यहाँ रहा ...! 
                मुंबई की बस सेवा और उसका संचालन वाकई में तारीफ़-ए-काबिल है , मेरा अनुभव जो रहा है ! दिल्ली और वहां पर भी संख्या से मार्गों का नामांकन किया गया है और बसें चलती हैं ! जो विशेष देखा वो था :

1. बसों में कोई भी प्रेश्रर होर्न नहीं है ..... हाथ से दबा कर भोपू की तरह बजने वाला यन्त्र लगा है जिस से कोई भी ध्वनि प्रदूषण नहीं होता !

2. बसों को गंतव्य पर रोकने और चलने के लिए सहायक - कंडेक्टर दिल्ली की तरह सीटी नहीं बजता जो की एक दम बुरी तरह से आवाज़ करती है ...यदि आपके पास कोई नव जात बच्चा हो तो वो डर ही जाये !!....मुंबई में एक बहुत ही साधारण किन्तु महत्वपूरण प्रणाली लगी है ...कंडक्टर का संकेत ड्राईवर तक पहुचने ले लिए .....दर असल उन्होंने पीछे से दरवाज़े से ले कर के ड्राईवर के ठीक सर के लगभग ऊपर एक नायलोन की रस्सी करीने से बाँधी हुई है , जो कहीं भी किसी यात्री के सर को नहीं छूती और ड्राईवर के सर के पास एक घंटी बंधी है ....जब कंडक्टर कहीं से भी उस डोरी को खीचता है तो वो घंटी धीर से बज जाती है तन्न्न से ....हाँ रुकने और चलने के लिए घंटी के बजने और बजाने की अपनी अगल प्रणाली है जो ड्राइवर और सहायक / कंडक्टर के बीच ही नियत है !

3. यहाँ सब कंडक्टर अपनी  उनिफ़ोर्म में मिलते हैं , और जगह भी होते होंगे मेरा अबुभाव यहाँ का ही है ....!!

4. कितनी भी भीड़ हो कंडक्टर हर यात्री के पास जाकर पहले एक पंचिंग करने वाले लोहे के  यंत्र से तक तक की आवाज़ कर के उसकी टिकिट बनता था .... आपके लिए बड़े सलीके से जितने मूल्य की टिकट होनी चाहिए निकाल कर उसी यंत्र से पञ्च कर देता था ....और आपसे पासे ले लेता था ....आजकल एक बदलाव देखने को मिला .... वो कागज़ की तिअक्त नहीं होती , ना ही वो यंत्र होता है ....बस एक बत्तरी चालित मशीन है जिस से बटन दबाने पर टिकट निकलती है .... किन्तु आज भी कंडक्टर आपके पास ही जा कर टिकट निकलता है ...दिल्ली की दी टी सी की तरह नहीं की कंडक्टर पिचली सीट पर बैठा रहेगा और किसी ने किसी वजह से टिकट नहीं ली तो वो यात्री खुद ज़िम्मेदार ....!

5. एक और बात अलग है यहाँ की बसों में ....पिचले और अगले टायरों के ऊपर की सीट पर बैठने का मन करता है ...आराम दायक होती हैं ...दिल्ली जैसी नहीं की कुछ तेधिमेधि उभरी हुई की पूरा रास्ता आपका अपने को एड्जसत करने में ही कटे !!

    आधुनिकता और प्रगति के लिहाज़ से मुंबई अग्रणी है किन्तु पर्यावरण और अपने यात्रियों का ख़याल करना इस शहर जो आता है , तेज़ गति में अपने शहर का धवनी प्रदुषण ना हो के लिए हाथ से मुअल चलने वाले भूपू हैं , और सीटी की जगह पर हाथ से बजने वाली डोरी की घंटी है ... हम सब ये कर सकते हैं बस ज़ज्बा और सहयोग की ज़रुरत होती है ...जो थोडा थोडा ही बहुत हो जाता है ...!!

Monday, July 30, 2012

..जुड़ाव निष्काम होना चाहिए हमेशा प्रतिउत्तर में कुछ पाने का जुड़ाव व्यर्थ है !!

             कल फिर से अपने जाने पहचाने सफ़र पर निकला था ...हजरत निज़म्मुदीन से मुंबई ...अधिकारिक सफ़र रहता है ये अमूमन ...हाँ एक साल पहले ये ही साफ एक पारिवारिक कार्यकर्म में शरीक होने के लिए था जब मेरी दीदी के बड़े बेटे की शादी थी !!
           खैर , देखते हैं इस बार क्या कुछ क्या हुआ ! बी सिक्स ( बी 6 ) में बर्थ संख्या 23 थी मेरी , मनपसंद सीट , साइड लोवर !! 4 : 55 शाम को खुलती है और सवेरे लगभग 9:15 तक बोरीवली ! क्या शहंशाही सफ़र होता है ...एसा मन को लगता है , भाई राजधानी एक्स्प्रेक्स में जो किया है !! भारतीय रेल के विषय में क्या लिखूं ...अगर में आज 10 साल सफ़र कर के राजधानी में उसके बारे में कुछ तारीफ करूंगा तो केंद्रीय मंत्री जी श्री जयराम रमेश की बात झूठी हो जाएगी ना ..उन्होंने कल या परसों ही कहा था : " भारतीय रेल सबसे बड़ा खुला टायलेट ( शोचालय ) है ! " सही है !! ट्रेन प्लेटफोर्म पर कड़ी होने पर इसका प्रयोग ना करने का निवेदन करते विभिन्न प्रकार के बोर्ड लगे दिखेंगे , लेकिन देखते सब हैं किन्तु इसको मानता कौन है ....सवारी तो बाद में चढती है किन्तु उनके पहले बहुत से समाज सेवी आपके प्रयोग में ले से पूर्व ही उनका प्रयोग कर के देख लेते हैं कही आपको कोई तकलीफ ना हो , प्रयोग में !!
            एक अन्तराष्ट्रीय क्लब है , नाम नहीं लिख सकता संभव है उनके संविधान में इस के नाम के किसी भी प्रयोग पर हम पर शायद कुछ कानूनी कार्यवाही हो जाये .... चलिए इस क्लब के एक विशेष और महत्वपूर्ण कार्यकर्म पर नज़र डालते हैं !! , मेरी सीट पर एक सोबर सी महिला आकर बैठी ...उनका 24  नंबर था बर्थ का , साइड अप्पर !! हमें ने एक दुसरे को एक हलकी सी मुस्कान से देखा , अब जिन दो लोगों को लगभग 16 घंटे साथ में जाना हो वो कम से कम एक दुसरे को मूक नहीं हैं, तो समझायेंगे !! 
           थोड़ी देर में एक आवाज़ आई , चाय काफी ? मैंने चाये की  किट ली और उन्होंने काफी !! बस थोड़ी देर में वो गरम पानी का मग दे गया ...ये निर्देश देते हुए " एक में दो बन जायेंगे " !! में तो चुप रहा ...किन्तु दूसरी तरफ बीते एक सूरत के साडी व्यापारी श्री पोपट लाल जी ने कहा : ...क्यों भी रेलवे के पास भी पानी की कमी हो गयी है क्या ?? नाही साब आप बोले तो अलग अलग मग दे देता हूँ .... !! सब ने मन कर दिया !! एक ही में काफी पानी रहता है ...! तब पोपट जी ने राजधानी का मुझ से ज्यादा सफ़र किया था ...वो बताने लगे ...अब देखना 20 साल से चला आ रहा ही मेनू बोलेगा और खिलायेगा ....और हुआ भी वही ...बाद में लिखता हूँ !
             में अपनी चाय बनाने लगा !! मने गरम पानी लिया , और चय के दोनों पैक ( डीप वाले ) काग़ज़ के गिलास में दाल लिए ...और जब दूध का पाउडर डालने लगा तो मुझे एहसास हुआ की मैंने गलती कर दी है ...तभी उन सोबर महिला ने कहा की आपने पहले दूध मिलाना चाहिए था ...उन्होंने अपना गिलास मेरे आगे बाधा दिया ...किन्तु मेने वो नहीं लिया और मनेज़ कर लिया ...!! उसके बाद श्री पोपट जी की बात सुनने लगे , 20 साल से एक ही मीनू है : वेज में : पनीर की सब्जी , अरहर की दाल, सलाद , दही , पराठा - 2 नग , चावल , अचार , नमक ( मांगने पर ) और बाद में एक आइसक्रीम !! नॉन वेज़ में : पराठे ( 2 नग ) , चिकन कर्री , चावल , ,रायता  अचार , दही सलाद और आइसक्रीम !! हाँ एक एक नीम्बू का टुकड़ा भी पानी के एक बोतल तो दे ही चुके होते 7 बजे के लगभग टमाटर का सूप भी !!  नाश्ते में , पोहा या , उपमा , ब्रेड ऑमलेट , ब्रेड वेज़ कटलेट , एक एक मांगो फ्रूटी और टी बस !! जी बिलकुल ये ही होता है ...मुझे या किसी भी सह यात्री की कही भी पोपट भाई को कुछ भी सहायता नहीं करनी पड़ी की आप कुछ भूल रहे हैं ....सब कुछ सही कहा था ....उन्होंने ! हम सब मंद मंद मुस्कुरा रहे थे ....या हम सब की मूक सहमति थी ....किन्तु किंकर्तव्यविमूढ़ता के साथ !! 
              हम सब आठ लोगों के साथ एक और था जिसके लिए ये सब एकदम नया और अनोखा सा था !! नाम : माउले , नागरिकता - ब्राज़ील , उम्र - लगभग 15 वर्ष ! वो उन महिला के साथ ही था , वो उसको अपने साथ दिल्ली और आगरा घुमाने के गयी थी वापी से और हमारे साथ अगस्त क्रांति राजधानी में वापस लौट रही थीं !! मुझसे रहा नहीं गया और शायद वो भी उत्सुक थी कुछ विशेष बताने के लिए ...बस उन्होंने जो बताया ...वो अनोखी सोच को प्रायोगिक कर के आनंद लेने की चरम सीमा के सामान है ....जो श्रध्हा के साथ संतुष्टि देता है .... !!
                दर असल उस कल्ब में जिसकी वो महिला सदस्य हैं में एक कार्यकर्म चलता है ...जिसके अंतर्गत 12 से 15 वर्ष के युवाओं को अपने और दुसरे देश को समझाने के लिए यूथ आदान प्रद्दन किया जाता है , जिसमे दो परिवार एक दुसरे परिवार के युवाओं को एक दुसरे के देश में किसी प्रतिष्ठित परिवार में भेझाते हैं !! जिसका चयन एक विशेष चयन समिति करती है ...जो युवा के पसंद और ना पसंद के हिसाब से नियत करती है की किस को कहाँ जाना है !! उसी के अंतर्गत वो युवा जिसका नाम मोरिलो है आया था ....सुन्दर सा किन्तु गंभीर बच्चा , जिसका की वो महिला बिलकुल अपने बच्चे सा ध्यान रख रही थी !! उसके भोजन चयन पर भी उन्होंने राय दी की उसको वेज़ आर्डर करना चाहिए क्यों की उसको भारतीय मसाले नहीं पसदं किन्तु उसके नॉन वेज़ आर्डर किया ....!! ये उन्होंने मुझे बताया !!  इनके यहाँ से इनका नेफ्यू मोरिलो के घर गया था ...एक सुखद अनुभव ले कर आया !! और ये भी यहाँ से सुखद एवं जीवन पर्यंत याद रखने वाला अनुभव ले कर के जाए ....क्यों की वहां पर ये परिवार जो भारत में इसका ,ध्यान  पसंद ना पसंद , संस्कार का ध्यान रख रहा है दरअसल पुरे भारत का प्रतिनिधित्व ..करेगा ..और एक भी चूक ...भारत की चूक होगी ....जैसे ओलम्पिक में हम अ बी सा नहीं ....भारतीय हैं ....और किसी एक का भी प्रदर्शन भारत का प्रदर्शन होता है खराब या अच्छा !! उसे - मोरिलो को सॉकर देखना अच्छा लगता है किन्तु टेनिस ज्यादा पसंद है , मेने पुछा तो उसने ये ही कहा ....और मुझ से पुछा तो मैंने बताया की मुझे क्रिकेट पसंद है ...वो हल्का सा मुस्कुराया और उस अपनी भारतीय माँ की  तरफ देखा ....तो उन्होंने उसको मुस्कुराते हुए बोला ....हियर इन इंडिया मोस्ट ऑफ़ थे पीपल्स लिखे क्रिकेट !! रात हो गयी।.. हम सब अपनी अपने सीट पर सोने चले गए ...और सवेरे वो वापी उतर गए ....एक सफ़र में क्या क्या समझ बूझ लिया ....सब दुनिया क्या क्या कर रही है , जीवन चलते रहना चाहिए ....अगर कुछ विशेष करते हुए चलेगा तो मानसिक एवं हृदियक संतुष्टि मिलती है , किन्तु ये भी सत्य है की कुछ भी विशेष करने के लिए आपको जुड़ना होता है ...और जुड़ाव निष्काम होना चाहिए हमेशा प्रतिउत्तर में कुछ  पाने  का जुड़ाव व्यर्थ है , स्वयं के लिए !!

Wednesday, July 25, 2012

...कितना भालो लगता है ना....अपना छोटा नैनो.... !

               वो कई दिनों के बाद मिलने वाली ख़ुशी थी .... ! उस दिन अचानक ही बारिश हुई थी ....लगातार हो रही थी ....हमारे इलाके में !!  हम उत्तरप्रदेश में रहते हैं ! सरकार नहीं है ....हाँ सरकार के बनाने से पूर्व भी बारिश हुई थी ...जैसे की होती है ...वादों की ...अब ये मत पूछिए की पुरे हुए कितने ! ये भी कोई सवाल है ? वादे क्या पुरे करने के लिए किये जाते हैं ?? ना ना वो तो सरकार बनाने के लिए किये जाते हैं ...खैर छोडिये हम कहाँ इस बिना नीति के विषय पर दिमाग लगाने लगे .... आइये कुछ बाते बताते हैं उस दिन बारिश के दिन हुए एक गंभीर एहसास के बारे में ........!!
               हाँ , दफ्तर में सब बातें कर रहे थे आज राम जी बरसेंगे , आज तो धरती की प्यास बुझेगी , आज तो सारा वातावरण सुहावना हो जायेगा ....और कितना जिस की सीमा सोचने की और शब्दावली थी सब ने कुछ ना कुछ  कहाँ शायद ही होने वाली बारिश के बारे में ,,,, !
               शाम के छे बजे , हम ने कमर कसी , सब से पारम्परिक विदा ली , और चल पड़े अपनी फटफटिया की तरफ ! कुछ साफ़ किये और किक मार कर चल पड़े ...रस्ते में घोष बाबु को लिया ...एक पान खाने की इक्चा जताई किन्तु घोष बाबु ने हमें मना कर दिया ...लगभग डाँटते हुए !!
               कुछ आगे बढे ....हमारे कारखाने से मेरे घर की दुरी कुल 40 किलोमीटर है ...हमें 5 किलोमीटर की दूरी तय करी तभी हमें कुछ पानी की बूंदों का एह्साह हुआ ...हमें जल्दी से रस्ते के एक बस स्टैंड पर रुके , और अपना अपना रेनकोट ( बरसाती ) पहनी और फिर चल पड़े अपने गंतव्य पर ....झमाझम बारिश , खुली खुली सड़कें , कम ट्रेफिक , और जगह जगह पानी ....और में और घोष बाबु चले जा रहे थे ....कपडे तो भीगने का सवाल नहीं ...रैन कोट जो पहना था ...दर किस बात का !!.......अचानक ही घोष बाबु ने कुछ एसा कहा की मुझे अपने ऊपर गर्व होने लगा , एसा लगने लगा की कहाँ हम कहीं कम हैं ...बस ज़रुरत है तो बस सोच बदलने की .... चलिए बताते हैं घोष दा ने क्या कहा .... बारिश में भीगते हुए बाइक पर सफ़र करना अपने पा में ही अनोखा अनुभव है ....और उस में घोष जी ( अपनी बंगला टोन में ) .... "" कितना भालो लगता है ना ....अपना छोटा नैनो  .... !""  मैंने पलट का पुछा छोटा नेनो ....मतलब ? अरे ये बाईक अपना छोटा नेनो तो है .... छोटा ...जिसमे बारिश भी नहीं लगता ( रैन कोट जो पहना है ) कम फियुल लगता है ....सो ये नेनो नहीं है किन्तु छोटा नेनो है ...बिना छत के .... !
                   हम लोग कितना धोखे में रखते हैं ना खुद को ... पर ये ज़रूरी भी है नहीं तो अगर जीवन सिर्फ यथार्थ की ही सीढियां चढ़ता जाये तो ....साँसे जल्दी फूल जाएँगी और साथ छूठ जायगा .....इस लिए अपनी " मोटरसाइकिल को छोटा नैनों  " मान कर चलिए.....ख़ुशी मिलेगी जब तक " औदी " नहीं ले लेते !!

Friday, July 20, 2012

मिलते रहीए , रुधिर में अपनापन तथा मिनिरल बने रहेंगे , आसूत जल नहीं बनेगा ये रुधिर !!

             हम गुणवत्ता से किसी भी तरह का समझोता नहीं करते ! सही है भाई जब हम पैसे खरे खरे देते हैं तो मिलने वाली वास्तु क्यों स्तर से नीचे हो या उसके समतुल्य क्यों न हो जो हमें मिलना चाहिए जिसके एवज में हमने  धन दिया है !!
             ये तो हुई एक सामान्य सी बात ,  लेकिन ये मेरा ब्लॉग सामान्य और विशेष के बीच की मध्यमा है ....तो आज बात करते हैं सामान्य सी चाहत और परिवर्तन की .... !!  मेरे और आपके , उसके , इसके हम सब के तन में धमनियां हैं और उनमे रुधिर बहता है , जिसमे नाजाने कितने प्रकार के गुण हैं , जो इश्वर ने सब को एक सामान दिए हैं ....किन्तु कालांतर में होने वाले शारीरिक परिवर्तनों में इधर उधर हो जाते हैं ...बात उस इधर उधर की नहीं है जो प्राकर्तिक हों ...हम बात करेंगे उन परिवर्तनों की जो प्राकर्तिक नहीं मानव के विशेष परिवर्तन पर हों ...जो अपने आस पास घटने वाली घटनाओ पर आधारित हों ...

आइये बतियाते हैं :-

           जब सड़क पर चलते हुए किसी दुर्घटना पर तड़पते हुए किसी इंसान को देख भी अपने गंतव्य पर पहुचने की जल्दी में जब हम ये देखने की ज़हमत नहीं उठाते की प्राण हैं भी की नहीं ....तब परिवर्तन महसूस होता है ....रुधिर में !
           जब किसी पिज्जा के चटकारे लेते हुए अचानक कोई आधे कपड़ों में कोई बच्चा दिखाई दे तो कोशिश करते हैं की जीतनी जल्दी हो सके तो वो अपने पास से किसी और के पास चला जाए ....खाने के मजा किरकिरा हो रहा है ....तब परिवर्तन महसुस होता है !
           जब रेलगाड़ी में अचानक से आपके जूतों को हटा कर छोटे से झाडू से आपकी और सब की सीट के नीचे का कचरा साफ़ करता हुआ कोई अपाहिज दिखाई देता है तो उसकी और इशारा कर के बड़ी सहजता से कहते हैं " अरे, जरा इधर से भी ले लेना ...." और फिर जब वो आपसे कुछ उम्मीद करता है तो कहते है , उन भाई साहब ने दिया ना ...एक रुपया ....तब रुधिर में परिवर्तन महसूस होता है !
            जब किसी पहचान वाले की अंतिम कियाक्र्म में जब वहां जाते हैं जहाँ सब को एक दिन जाना है तो मन सब कुछ होते हुए भी ये सोचता है : " अब जब ये हो ही गया तो देर किस बात की हैं , जल्दी क्यों नहीं करते " , घर से फोन आते हैं , आप हाथ मत लगाना , और रस्ते में कुछ खाना मत .....तब परिवर्तन महसूस होता है रुधिर में ....!! कुछ लोगों ने तो शमशान देखि भी नहीं होगी ...परिवार में छोटे हैं तो ये सब बड़े करते हैं मेरे ....कह कर कभी नहीं जाते !!
          जब बस अड्डे पर किसी भुट्टा बेचने वाले को एक भुट्टा भूनने के लिए कह कर हम किनारे खड़े खड़े हो जाते हैं ....ठंडी हवा से बचने के लिए ....और जब भुट्टा भुन जाये तो देख कर कहते हैं ...यार इसमें तो दाने ठीक नहीं हैं ....कोई और भून दो ....उसके ना नुकुर करने पर आप किसी और के पास चल देते हैं ...बिना ये सोचे की उसकी उस पूंजी का क्या होगा जो अपने नकार दी ....तब परिवर्तन महसुसू होता है रुधिर में !
         आस पड़ोस में किसी के घर में घटी किसी घटना पर घर में बात करते हुए सब सीमाए लांघ देते हैं ....ये सोचे बिना की शायद आपके बारे में भी कोई इस से भी बुरा सोचता होगा !!....तब रुधिर में परिवर्तन महसूस होता है !!
         कल तक जिनको साथ आप रहने देने में सुरक्षित महसूस करते हैं एक रोज़ आप खुद को उनसे दूर करने की कोशिश करते हैं ये समझ कर की आपका स्तर थोडा अलग हो गया है किन्तु ये भूल जाते हैं की वहां तन जाने का रास्ता किस ने दिखाया ..... परिवर्तन ...रुधिर में महसूस होता है !!
          में अपने उन दिनों को याद करता हूँ जब हम अपने कालेज की प्रयोगशाला में एक प्रयोग करते थे .... " आसूत जल " बनाने का .... एक बड़े से कांच के सांचे में सामान्य सा जल लेते थे और उसको खूब गरम करते थे ....तपिश देते थे ....और विभिन्न नालियों से उजरते हुए बाद में भाप बनते हुए जल को हल्का ठंडा करते हुए एक बीकर में इकठा करते थे .....इसे " आसूत जल " कहते थे .... जी हाँ इस के बनाने से पूर्व का पानी मानव के पीने योग्य होता है लेकिन इतनी तपिश के बाद बना जल मानव के पिने योग्य नहीं रह जाता उसमे किसी भी तरह का स्वाद नहीं रह जाता किन्तु जल ज़रूर रहता है .... बस आजकल हमारा सब का रुधिर भी विभिन्न प्रकार की तपिश सहता हुआ रुधिर तो रहता है किन्तु ...सब कुछ करने लायक नहीं .... ये बात असामान्य नहीं हो सकती हाँ इस को समझने के लिए हमें सामान्य होना होगा और बहार आना होगा अपने असामान्य से ओढे आवरण से ...अन्यथा अनजान खोखलापन लिए ये तपिश हम सब की रुधिर को और आसूत से और परिष्कृत आसूत  की ओर  ले जायगी !
             मिलते रहीए , रुधिर में अपनापन तथा मिनिरल बने रहेंगे , आसूत जल  नहीं बनेगा ये रुधिर  !