Saturday, March 9, 2013

" कितना सुख है बंधन में " !!

                  बड़ी देर तक टकटकी लगाये वो उसे देखता रहा , देखता रहा , लगभग ३ घंटो तक !
शाम के ७ बजे से लगभग १० बजे तक !

               वो कभी दोने पत्ते जो लोग टिक्की खा लेने के बाद पास में रखे कचरे के डब्बे में नहीं डाल  कर सड़क पर इधर उधर फेंक देते थे, को उठा कर करीने के कचरे के डब्बे में डाल कर दबा देता ताकि और भी दोने डाले जा सके !  अभी कुछ दिन पहले ही ...नगरनिगम के अधिकारी ने कितना डांट दिया था बड़े भैया को इसी बात पर :
क्यों भाई ये सड़क की तुम्हारे पिता जी की है जो गन्दी करते हो ... अगर कल से फिर एसा मिला तो समझना तुम्हारा यहाँ खड़ा होना बंद ....! इस के बाद फिर बड़े भैया ने बड़ा गिदगिड़ा कर उनसे माफ़ी मांगी थी ...और शायद आधे दिन की कमाई भी बिना रसीद के उन अधिकारीयों को दी थी !! उस दिन मुझे बाद अफ़सोस हुआ था .....क्यों की गलती मेरी , मैंने ही समय पर सब इधर उधर बिखरे दोनों को डब्बे में नहीं डाल कर रख था ! मैं पार्क में मदारी को देखने चला गया था ! पर भय्या ने मुझे कुछ भी नहीं कहा ! शायद कुछ नहीं कहना जायदा असर करता है ...कुछ बोल कर करवाने से !! वो एक सांस में सब बोल गया मुझे ! आज दसवीं में पढता है ! दसवीं में सब पता होता है ....!!
             आज भी वो टिक्की की ठेली है ! उसी रस्ते पर ! जिस से मैं कभी पैदल आता था और वो मुझे देख कर हल्का सा मुस्कुरा देता था , अपनी हाफ पेंट दोनों हाथों से ऊपर की और करता हुआ !! आज मैं उसी रस्ते से जा रहा था , अचानक मुझे रुकना पड़ा ! देखा वो आज ठेली के उस किनारे पर है ! आलू की टिक्किया सकता हुआ !! वो ही भीड़ ,

वो ही आवाजें :

--:  भैया ज़रा  सोंठ डाल देना ,
--:  भाई ज़रा - हरी चटनी देना ,
--: यार दही मना करी थी मैंने ,
--: भाई एक पापड़ी और मसल दे ,इसमें
--: भैय्या जी पानी मीठा और ठंडा देना,
--: आज हींग नहीं डाली क्या पानी में ,
--: यार आलू , आलू भर दिए तुमने ,
--: अच्छा चल पैसे कल लगा लेना .

.....और न जाने क्या क्या ...!!

मुझे सड़क के उस किनारे देख कर उसने सर को झुका कर मेरा वंदन किया .....हल्का सा मुस्कुराया भी ....!!

मैं भी हल्का सा मुस्कुराया !

उसने अपनी और आने का इशारा किया !!

मैंने मना किया !

वो माना नहीं ,

सब को छोड़ कर मेरे पास आ गया ...और खीचते हुए ले गया अपने साथ ! अपनत्व के साथ !

                  मुझे योगेश के एक गीत  फिल्म " रजनीगंधा " की वो पंक्तियाँ याद हो आयीं - 
रजनीगंधा फूल तुम्हारे ......... " कितना सुख है बंधन में " !!

        वो पढ़ा और नौकरी भी मिली , करी भी ! स्वयं को सिद्ध किया की वो हर उस बच्चे, किशोर , युवक जैसा है जो टिक्की नहीं बनाते , दोने नहीं चुनते किन्तु दसवी पास कर के आगे पढ़ते हैं और नौकरी पाते हैं !!
                आज, उसके हाथ से बनी एक पत्तल टिक्की मेरे हाथों में थी ....मुझे उस दिन की टिक्की का स्वाद आज तक याद है .... रूधे गले से उतरते हुए एक-एक कौर अपने साथ हज़ारों हज़ार सुख अनुभव करा रहा था ...जिसकी कीमत मैंने शायद उसके बचपन में चुकाई थी .... सिर्फ उसके साथ मुस्कुराकर !!
                  <>**<> हर पल को जिवंत कीजिये , ये हमारे हाथों में है !! <>**<>



...इच्छाएं पिघलती है !!

इच्छाएं पिघलती है !
जब स्नेह की,
अपनत्व की,
गर्माहट लिए,
बढ़ते है हाथ,
किसी अपने के,
शब्दों के रूप में !
जैसे उड़ जाती है,
सुर्ख सर्दी की भोर,
गर्म चाय की
भाप संग !!

यायावर,
किन्तु एकांकी,
अंतर्मन की सघनता,
पिघलती है,
गतिमान होती हैं,
अनगिनत इच्छाएं,
जब मिलते हैं,
रेल एवं पटरी
सरीखे हम ,
आप संग !!

~~~*~~  मनीष सिंह ~~~*~~

Friday, March 8, 2013

प्रक्रिया, अपरिचित होने की !

वो,
रोज़ गलियों से,
निकलते हुए,
इसके उसके,
सबके,
हाल, जान लेता !

शब्दों से,
कैसे हो,
क्यों, कैसे,
कब हुआ,
कुछ चाहिए,
इत्यादि, इत्यादि !

सब संतुष्ट,
परिचित से !

गलियों के वही,
टूटे पत्थर,
उखड़ी इटें,
कोने का कचरा,
प्रथीक्षा में,
उसके शब्दार्थ भी !
प्रक्रिया,
अपरिचित होने की,
आयुनुरूप,
चलती रहती है !

<^><^ > मनीष सिंह <^><^>


Monday, March 4, 2013

<><> हल्दी <><>

<><> हल्दी <><>


हल्दी छोड़ देती है,
अपना रंग,
अपना अपनत्व,
अपना सादगी,
अपनी कोमलता,
अपनी सुगंध,
उनके लिए, जो,
पीस लेते हैं उसे,
अपने शुभ के लिए,
अपने अशुभ में,
अपने कष्ट में,
औषधि सा !

पिस कर ,
बिखर जाती है वो,
सुबह की किरणों सी,
बिना तपिश के,
स्वयं नष्ट होते हुए,
शुभ करती हुई,
उन सब को !