बांस का काग़ज़, सिकुड़ती दोपहर !!
मोटी निब का पेन,
बांस का काग़ज़,
सिकुड़ती दोपहर,
विस्तृत एकांकीपन,
ढेरों शब्द,
उभरते से,
फैलते जाते हैं,
किशोरावस्था में !
जैसे आशाएं,
भूमि पर,
यथार्थ की,
आकार लेती,
फ़ैल जाती हैं,
आयु की दोपहर,
में लम्बी होती,
परछाइयों के साथ !!
~~~~ :: मनीष सिंह ::
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