Wednesday, October 22, 2014

एक दिन !

आस के दीपक,
सिन्दूरी से,
जल कर,
ढूंढ लेंगे मार्ग,
किरणें बन,
ख्याति का,
सबलता का !
एक दिन !

आइयें,
बनकर जलें 
दीपक, 
दीपोत्सव पर,
जो , शेष कर दे,
भेद एवं अहंकार,
प्रबलता से,
एक दिन !

दीपावली की शुभकामनाएँ !

::~~ :: मनीष सिंह 


Saturday, October 18, 2014

एक कहानी : पूर्णिमा !!

           बाहर हल्की बूंदा बांदी थी !  रात ९ बजकर २५ मिनट की फ्रंटियर मेल गुजर चुकी थी ! स्टेशन से कुछ पहले पड़ने वाले रेलवे फाटक के गेटमैन " रमेश भाई " अपने केबिन में निवाड़ की कुर्सी पर बैठे लॉग बुक में एन्ट्री कर रहे थे ! 

रमेश भाई चाय मंगवाऊ या छत्तीसग़ढ एक्सप्रेस के बाद पियेंगे ? 

केबिन के बाहर खड़े फल वाले आदिल ने पुछा !
लॉग बुक में एंट्री कर के पेन को कान के ऊपर खोंसते हुए रमेश भाई बोले :  आदिल , आज अभी ही मंगा लो !

ठीक है कहते हुए आदिल ने पास के चाय वाले को दो चाय का इशारा किया !

       छोटे से केबिन के बाहर दो चार सदाबहार के पौधे ! जिनपर गहरे गुलाबी रंग के फूल ! एक तुलसी का पौधा ! जिस पर रोज़ घर से लाये ताम्बे के लोटे से रमेश भाई जल चढ़ाते थे ! हलकी बारिश की फुहारों से भीग चुके थे और ट्यूबलाइट की रौशनी से चमक रहे थे !
रमेश भाई : आदिल ये तुलसी का गमला ज़रा अंदर सरका दो , बारिश धीरे धीरे तेज़ हो रही है मैं फाटक बंद कर रहा हूँ , छत्तीसगढ़ का सिग्नल मिल गया है ! 

आदिल ने झिझकते हुए तुलसी के गमले को केबिन के भीतर रखा और बोला :

आदिल : आइये चाय पीते हैं !
रमेश  भाई : हाँ लाओ मुझे यही पकड़ा दो मेरा गिलास , मैं हरी झंडी लिए यहीं खड़ा हूँ , इसके गुजरने तक !
धधड़ाती हुई छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस गुजर गयी ! पौधों से बूँदें छिटक के ज़मीन पर बिखर गयी !
रमेश भाई ने फाटक खोल कर लॉग बुक में एंट्री करते हुए चाय की आखिरी घूँट ली और गिलास खिड़की पर बाहर की तरफ रख दिया !
आदिल : आज आप कुछ अलग लग रहे हैं आप ! क्या ख़ास है आज रमेश भाई ?
आदिल साल में एक दिन मैं ऐसे ही खुश रहता हूँ ! रमेश भाई ने तुलसी का गमला फिर बाहर रखते हुए जवाब दिया !
आदिल : साल में एक दिन ? वो कैसे ?
रमेश भाई : आओ ज़रा ये लकड़ी का टेबल बाहर रखवाओ , बारिश काम हो चली , यहीं बैठ कर बताता हूँ !

आदिल : ठीक है फिर दूकान बढ़ा कर बैठते हैं !
        फाटक ये उस पार यादव जी अपनी पान की दूकान बढ़ा कर चलने की तैयारी में थे ! आदिल भी फलों को करीने से सजाने में लगा था ! एस टी डी की विकलांग द्वारा संचालित दूकान कब की बंद हो चुकी थे ! दिन भर बड़े से बरगद के पेड़ के नीचे पूरा संसार चहल कदमी करता दिखाई देता है और रात में सिर्फ फाटक पर रमेश भाई और पड़ोस की कालोनी के घुमते चौकीदार !
       लीजिये रमेश भाई आपके पान ! यादव जी ने अपनी सायकिल से उतरते हुए ४ जोड़ी पान रमेश भाई की तरफ बढ़ा दिए और राम राम कहते हुए घर की तरफ बढ़ गए !
        लीजिये रमेश भाई ये सेब खाइये आखिरी दो बचा रखे थे , यहीं मैं अपने और आपके लिए ले आया ! आदिल अपनी दूकान बंद कर के केबिन के करीब रखे लकड़ी के टेबल पर बैठ गया !
रमेश भाई भी निवाड़ की कुर्सी पर बैठ गए !
आदिल : हाँ , अब बताइये !
रमेश भाई ने केबिन के भीतर रखे एक बड़े से पैकेट को आदिल की तरफ बढ़ाते हुए कहा : लो , इसे खोलो तो !
आदिल : अरे , इसमें क्या है ?
रमेश भाई : तुम मेरी आज की ख़ुशी का राज जानना चाह रहे थे ना , तो खोलो इसे फिर बात करते हैं !

        आधी रात हो चली थी ! अब अगली ट्रेन कोई दो बजे के करीब गुजरने वाली थी ! आदिल और रमेश भाई हलकी बारिश से भीगी मिटटी की सौंधी खुशबू में करीब की मज़ार पर आने जाने वाले इक्का दुक्का नौकरीपेशा ज़ायरीन की इबादत से जलाई अगरबत्तियों की महक के बीच ख़ुशी का राज तलाश रहे थे !

       आदिल ने बारी बारी से एक एक रीबन खोला और बड़े से पैकेट के अंदर से नायाब और बहुत महंगा, शानदार पश्मीना का दुशाला निकाला ! आश्चर्य से आदिल कुछ बोल ही नहीं पा रहा था ऐसा दुशाला उसने कश्मीर में देखा था जब वो दो साल पहले अपनी बुआ के घर गया था  ! दुशाले के नीचे करीने से महंगे सूखे मेवे सजे थे और साथ में कुछ रुपयों के लिफाफे के साथ एक चिट्ठी रखी थी , रमेश भाई के नाम ,

जिसपर लिखा था :

" दिवाली मुबारक़ हो दोस्त , साँसें रहीं तो अगली  " शरद पूर्णिमा " , फिर मिलेंगे ! "

आदिल एक हाथ में दुशाला , अपनी जांघों पर मेवों का डब्बा और दूसरे हाथ में लिफाफा लिए चिट्ठी पढता हुआ रमेश भाई की तरफ देख रहा था !

रमेश भाई गुम-सुम आँखों में अजीब से चमक लिए अतीत में जा चुके थे और बुदबुदा रहे थे :

           आज से कोई २० - २२ साल पहले मैंने इण्टर का एग्जाम " रौशन " के साथ दिया था ! आखिरी एग्जाम के दिन बहुत खुश थे हम दोनों ! आर से शुरू होने वाले नामो के कारण बचपन से ही साथ साथ एक ही बेंच पर बैठते थे और दोस्त थे ! हम दोनों के पिता रेलवे में थे तो हम रहते भी एक ही कॉलोनी में थे ! एग्जाम दे कर  घर पहुंचे तो मेरे घर के सामने भीड़ जमा थी ! मेरी धड़कन धीरे धीरे तेज़ होती जाती थी रौशन ने मुझे कस के पकड़ रखा था ! मेरे पिता का एक्सीडेंट हुआ था और वो नहीं रहे !

          में ही सबसे बड़ा था घर में ! दो छोटे भाई और एक बहन की ज़िम्मेदारी थी ! रौशन के पिता और दूसरे स्टाफ की मदद से मुझे पापा की जगह रेलवे में नौकरी मिल गयी पहले अस्सिटेंस और फिर गेटमेन की ! मुझे इंजीनियर बनना था लेकिन अगर मैं ये गेटमेन की नौकरी नहीं करता तो हम सब सड़क पर आ जाते ! घर रेलवे ले लेती और माँ को काम करना पड़ता ! अब घर भी वही पापा वाला हमारे पास है और छोटे भाई बहन पढ़ लिख गए ! सब अपने अपने घर खुश हैं ! मैंने शादी नहीं करी ! माँ मेरे ही साथ रहती है , एक नौकरानी है जो उनकी  ज़रूरतों का ख्याल रखती है ! भाई बहन आते हैं कभी कभी मिलने मुझे से लेकिन मुझे पूरे साल इंतज़ार रहता है कार्तिक की पूर्णिमा का जब रौशन मुझ से मिलने आता है , इस रेलवे फाटक पर !

रात गहराती जा रही थी रमेश भाई यादों और वर्तमान के गलियारों में घूम रहे थे  !

दोबारा होती बारिश के झोंके ने आदिल और रमेश भाई को टेबल थोड़ा भीतर सरकाने को मजबूर किया !

रमेश भाई ठण्ड बढ़ रही है मैं चाय बनता हूँ और आप ये दोशाला ओढिये !

अहमदाबाद मेल के गुज़र जाने के बाद लॉग बुक की एंट्री खत्म करी रमेश भाई ने और फिर खो गए अतीत में !

          वो रोज़ मुझ से मिलने आता था पहले कॉलेज जाते - आते समय और फिर जब उसने जज की परीक्षा पास कर ली फिर भी आता था ! ट्रेनिंग के बाद उसकी पोस्टिंग यहाँ से २०० मील दूर दूसरे जिले में हुई ! वो फिर भी आता  मिलने हफ्ते दो हफ्ते में एक बार ! ये सिलसिला कुछ १० साल ठीक ठाक चला और फिर बाद में बंद हो गया ! अगले ७ साल तक उसकी कोई खबर नहीं ! बड़ा इंसान था ! घर में सब ठीक ठाक था ! ना कभी मैंने उसके रहने का ठिकाना पुछा और ना कभी उसने बताया पर हम मिलते थे ! पर मेरा घर तो यही था जो उसे पता था !
             सुबह के ३ बज चुके थे ! आदिल की आँखों की नींद रमेश भाई के शब्दों के उडनखटोलों पर तैर रही थी ! हलके से इत्र की खुशबू ने रमेश भाई को गहरी सांस लेने को मजबूर किया ! करीब के हनुमान मंदिर के चौखट को धोने वाला पंडित जी का बेटा नल में पाइप लगाने की तैयारी कर रहा था ! इक्का दुक्का भारी सामान लिए ट्रक करीब के फलिओवेर से गुजर जाते थे !

             जब सात सालों तक वो नहीं आया मुझ से मिलने तो मैंने समझा की अब अंतर समझ लेना होगा मुझे उसमे  और खुद में जिस के कारण उसने दूरियाँ बना ली हैं फिर मैं अपने काम में अलग रहा ! छोटे भाइयों के बच्चे , बहन की शादी और माँ की सेहत और उनका ख्याल बस ये सब ही जीवन रह गया ! आपने कहने को कोई था तो वो माँ या फिर रौशन जिसने हर समय मेरा साथ दिया , हौसला दिया ! कभी मन खट्टा हुआ ये सोच कर की जीवन में क्या - क्या करने की चाहत थी और मैं रेलवे के फाटक पर काम पढ़ा लिखा गेटमैन बन कर रह गया !

       पिछले से पिछले साल मैं  इसी उधेड़बुन और खुद की किस्मत पर पर दिनभर सोचने के बाद स्टेशन पर रुकी फरंटियर मेल के गुजरने का इंतज़ार कर रहा था की आखिरी डब्बे के दरवाज़े से किसी ने पुकारा :

रमेश , रमेश !

रमेश भाई : कौन हो भाई ?

आवाज़े आई : अरे , मैं रौशन हूँ !

रमेश भाई : ओहह तुम इतने दिनों बाद !  नीचे आ जाओ  !

रौशन : नहीं , यहाँ कम देर का स्टॉपेज  है , अगले साल पूर्णिमा आऊंगा फिर मिलूंगा ! हर साल मैं अमृतसर अपनी बेटी के घर जाता हूँ शरद पूर्णिमा पर वहां से हम सब हरिद्धार गंगास्नान करने जाते हैं !

रमेश भाई : ठीक है , मैं इंतज़ार करूंगा दोस्त !

         फ्रंटियर मेल लम्बी सीटी देती हुई आगे बढ़ गयी लेकिन रमेश भाई का जीवन वहीँ घूमता रहा घर से फाटक और फिर घर अगले साल आने वाली " शरद पूर्णिमा " के लिए !

          अगले साल फिर वो रात आ गयी ! रौशन अपने कम्पार्टमेंट से ट्रैन के अंदर ही अंदर लास्ट कोच तक आ गए और इधर रमेश भाई भी उनसे मिलने को खड़े थे हाथों में हरी झंडी लिए !

         रमेश भाई ने चीनी मिटटी की बर्नी में कटहल का आचार रौशन की तरफ बढ़ा दिया माँ के संदेशे के साथ और रौशन ने एक गुलाबी पैकेट उनकी तरफ बढ़ा दिया गले लगाते हुए और वादा किया अगली पूर्णिमा फिर मिलेंगे !

पिछली रात भी फरंटियर मेल रुकी !

दो दोस्त मिले और दूर हो गए अगली शरद पूर्णिमा तक !

           सुबह के पांच बजने को थे ! आदिल की आँखों में नींद का नमो निशाँ नहीं था ! रमेश भाई और आदिल ने पूरी रात गुज़ार दी थी उस चाँदनी रात में ! 

           सुबह पांच चालीस की पसेंजेर ट्रेन की सवारियां प्लेटफॉर्म पर इकट्ठा होने लगी थी !

         सवेरे से ही चाँद पूरा दिखाई दे रहा था और दिखाई दे रही थी रमेश भाई को अपने दोस्त की तरक्की और खुद का रुका हुआ समय जो रोज़ रात को फाटक पर जागता था फिर दिन में सो जाता था , सिर्फ और सिर्फ अपनेपन को तलाश में जो खत्म होती थी हर साल पूर्णिमा की रात फरंटियर मेल के आने और चले जाने पर  !



एक कहानी : " पूर्णिमा " 

:: मनीष सिंह :: 

Sunday, August 3, 2014

एक कहानी : पोशम्पा पा ……

        तेज़ रफ़्तार से दौड़ती टैक्सी लाल बत्ती पर रुकी तो " अनिरुद्ध " की नज़र सड़क के उस ओर लंच टाइम मे पोशम्पा पा भाई पोशम्पा पा   … खेलते बच्चों पर टिक गयी ! उनके सुरीले और तारतम्य लिए शब्दों ने उसे लगभग बाँध सा दिया था !  ड्राइवर ने तेज़ और लम्बा हॉर्न बजाया फिर गाड़ी आगे बढ़ा दी  ! उन 120 सेकेंड्स में अनिरुद्ध जैसे बचपन , किशोरावस्था और जवानी का सफर कर आया था , पोशम्पा भाई पोशम्पा की शंब्दिक और भावपूर्ण नाव में हिचकोले लेते हुए !
 
         बीनू भाई ज़रा गाड़ी उसी स्कूल के पास फिर से ले चलो जहाँ लाल बत्ती पर रुके थे ! अनिरुद्ध ने ड्राईवर से आग्रह किया !
 
         बीनू ने जी सर कहते हुए गाड़ी अगले गोल चक्कर से वापस मोड़ ली और पूछा : साब किसी को मिलना है उस स्कूल में आपको ?
 
अनिरुद्ध निरुत्तर था !
 
बीनू ने कुछ देर बाद फिर पुछा : साब , स्कूल के अंदर ले लू ?
 
अनिरुद्ध : नहीं , यही पलाश के पेड़ नीचे रोक लो !
 
बीनू : सर ,ये नो पार्किंग ज़ोन है , फाईन हो सकता है !
 
       अनिरुद्ध ने कुछ रूपये निकाल कर उसकी ओर बढ़ा दिए और की कहा कुछ चीज़ों की कीमत नहीं होती बंधू और अपनी हाथ घडी को ठीक करता हुआ स्कूल की दीवार की तरफ बढ़ गया !
 
       अनिरुद्ध स्कूल की दीवार पर अपनी दोनों बाँहों को टिकाये खेलते बच्चों में अपना बीता बचपन तलाशने लगा ! जब शशांक और बाकी दोस्त पोशम्पा खेलते थे तो अनुपमा कितना रोती थी उसको भी साथ खिला लेने के लिए लेकिन वो दोनों ही उसको नहीं खेलने देते थे !
 
बीस ,पचीस सालों पहले बीत चुके दिनों की यादों में  खो गया था अनिरुद्ध दीवार पर बाँहों बीच ठुड्डी टिकाये !
 
       आज तो मेरा बर्थडे है ऐनी ( अनुपमा अनिरुद्ध को ऐनी कह कर पुकारती थी ! )  आज तो अपने साथ खेलने दो ! अनुपमा बोलते हुए क्लास रूम से शशांक और अनिरुद्ध के पीछे पीछे चल रही थी !
 
अनिरुद्ध : एक शर्त पर !
 
अनुपमा : वो क्या ?
 
तुम्हे मेरा और शशांक का बैग घर तक ले चलना होगा : अनिरुद्ध मुस्कुराते हुए बोला !
 
अनुपमा ने अपनी भौंह सिकोड़ते हुए हामी भरी !
 
           20  - 25 मिनट का रास्ता - खेल फिर बारिश , धुप और सर्द हवाओं में सड़क के किनारे लगे पलाश के पेड़ों के नीचे चलते हुए घर पहुचना ! रोज़ का काम था उन तीनो का ! जब बड़े हुए तो सामाजिक दायरे सिकुड़े और सब अलग अलग हो गए  ! पिता की ट्रांसफर के कारणं सब बिखर गया ! समय अपनी चाल से चलता रहा !

           शरीर ,दिमाग और ज़रूरतें कुछ चीज़ें भूल जाते हैं किन्तु हर उस चीज़ को मन ज़रूर याद रखता है जिसे आप भूलना चाहते है क्योंकि किसी को भूलने के लिए आपको उसको सबसे ज़्यादा याद रखना होता है !
 
बहुत सालों बाद :::::
 
            पहली नौकरी थी वो अनिरुद्ध की ! एक दवा कंपनी में ! अभी दो महीने ही हुए थे उसको की उस कंपनी में आय एस ओ सर्टिफिकेशन का प्रोसेस शुरू हो गया था ! तब कम्प्यूटर आया आया था और अनिरुद्ध उस का यूज़ जनता था इस लिए कुछ मैनुअल्स टाइप करने का काम उसको ही दिया गया और उसका कम्प्यूटर रखा गया लैबोरेटरी में !
 
क्या , अनिरुद्ध भाई आज आप जल्दी आ गए ? टाइम ऑफिस के खान ने पुछा !
 
अनिरुद्ध : हाँ , खान भाई आज दो पेपर पूरे करके देने हैं !
 
खान : मुझे लगा की आप आज आने वाली नई लैब असिस्टेंट से मिलने के लिए जल्दी आये हैं !
 
अनिरुद्ध : कोई न्यू जॉइनिंग है क्या आज ?
 
खान : जी हाँ ! वसीम साब के दोस्त की बेटी हैं ! रूडकी से आ रही हैं , नाम है अनुपमा !
 
          अनिरुद्ध को अब जैसे हर मिनट एक घंटे सा लगने लगा ! गोल गोल घूम कर लैब की पुरानी सी घडी ने नौ बजाये और वसीम साब की गाड़ी गेट पर आ रुकी !
 
अनिरुद्ध ने लेब की खिड़की से देख कर कन्फर्म कर लिया की खान ने सही कहा था की गलत !
 
           रोज़ मज़ाक करने वाला खान आज सही था , अनुपमा उतर चुकी थी गाड़ी से और सीढ़ियों से होते हुए मेन ऑफिस में दाखिल हुई !

लेकिन , ये वो तो नहीं !

            अनिरुद्ध के अंतर्मन ने आँखों को जवाब दिया ! अनिरुद्ध रिशेप्शन का दरवाज़ा जिस जोश से खोल कर बहार गया था उसके आधे से भी कम उत्साह से आ कर अपने कम्प्यूटर के सामने बैठ गया ! अनमना और अनुत्साहित ! खान के मुह से अनुपमा का नाम सुन कर ना जाने क्या क्या सोच लिया था उसने और सब एक बुलबुले सा एक पल में खत्म !

         अनिरुद्ध ये अनुपमा हैं ! आज से तुम्हारा कम्प्यूटर ये भी शेयर करेंगी रिपोर्ट्स तैयार करने के लिए ! वसीम साब ने एक सोबर और सलीके से हाथों में राइटिंग पैड पकडे लड़की से उसको मिलवाया !

अनुपमा ये अनिरुद्ध हैं  , कहते हुए वसीम साब प्लांट की तरफ चले गए !

लैब में अब दो अजनबी थे !

कुछ देर  ख़ामोशी के बाद अनिरुद्ध ने ही पुछा : ये आपकी पहली  जॉब है ?

अनुपमा की पीठ थी अनिरुद्ध की ओर , उसने  टेस्ट ट्यूब में कुछ केमिकल मिलाते हुए जावाब दिया : हाँ !

अनिरुद्ध और अनुपमा फिर खामोश हो गए !

        एक दूसरे को चाह कर भी नहीं देख सकते थे ! बगल के दरवाज़े पर शीशा था जो बाहर की लॉबी में आने जाने वालों को लेब में एक नज़र डाल लेने को काफी था और फिर प्रोडक्शन एरिया से आने जाने का रास्ता भी वही था जिस से वसीम साब भी गुजरते थे !
 
       दोनों लगभग हमउम्र !

       दोनों के अंदर अंदर उधेड़बुन !

       एक दूसरे को जान लेने की चाहत !  
 
          अनुपमा अनिरुद्ध की अँगुलियों से दबते की बोर्ड की आवाज़ के बीच खुद का नाम सुनने  कोशिश करती थी तो अनिरुद्ध अनुपमा की हाथों में पकड़ी टेस्ट ट्यूब की रगड़ के बीच अपने को पुकारे जाने का इंतज़ार करता था ! दोनों एक दूसरे की पहल करने के इंतज़ार में अपना अपना काम करते रहे और सुबह से दोपहर हो गयी !
 
अरे भाई आज लंच नहीं करोगे दोनों ? शर्मा जी ने लेब का शीशा लगा दरवाज़ा थोड़ा सा खोलते हुए कहा !
 
जी सर ,  चलिए आते हैं ! अनिरुद्ध ने शर्मा जी ( लैब इंचार्जे ) को जवाब दिया और शर्मा जी वापस लंच रूम की तरफ बढ़ गए !
 
चलो अनु लंच ले लेते हैं !

अनिरुद्ध ने अनुपमा  की तरफ बिना देखे कम्प्यूटर लॉग ऑफ करते हुए कहा !
 
तुमने मुझे अनु कहा ?
 
अनिरुद्ध अचानक से किये गए अनुपमा के इस सवाल पर ठिठक गया !
 
अनिरुद्ध : कुछ गलत कह गया क्या मैं ?
 
अनुपमा कुछ नहीं बोली डबडबाई आँखों से अपना लंच बॉक्स ले कर लैब से बाहर निकल गयी !

अनिरुद्ध जैसे मृगतृष्णा में डूबा कम्प्यूटर के सहारे खड़ा रह गया ! लैब से होती हुई लॉबी से गुजरती अनुपमा को देखता हुआ.

दस मिनट  बाद !

तुम खाना नहीं खाओगे क्या ? अनुपमा लैब के दरवाज़े पर खड़ी अनिरुद्ध से पूछ रही थी !

हाँ, चलो आता हूँ कहता हुआ अनिरुद्ध टिश्यू पेपर से हाथ पोंछता हुआ दरवाज़े की तरफ बढ़ गया !

          लैब से लंच रूम की दूरी सिर्फ 50 कदम की थी और उन दोनों को जैसे पूरा जीवन मिल गया था अपनी कह सुनने के लिए !

बुरा लगा तुम्हे मेरा तुम्हे अनु कहना ? : अनिरुद्ध  ने पुछा !

अनुपमा : हाँ भी और ना भी !

अनिरुद्ध : हाँ कैसे ? और ना कैसे ?

अनुपमा : अभी में यहां बहुत दिन हूँ , फिर किसी रोज़ बताउंगी !

दोनों लंच  कर के अपनी अपनी सीट  बैठ गए थे  ! दोनों की पीठ दूसरे की तरफ ! निगाहें और हाथ अपने अपने काम पर किन्तु जुबान दूसरे से बात करती हुई !

अनुपमा : वो भी मुझे अनु कह कर बुलाता था !

अनिरुद्ध : वो , कौन ?

अनुपमा : मेरा एक पुराना दोस्त ! जिसे मैंने दिया पिछले महीने !

अनिरुद्ध : खो दिया मतलब ?

अनुपमा खामोश हो चुकी थी ! जैसे तेज़ आंच पर उबलती चाय पर अचानक कुछ ठन्डे पानी छीटें पड़ गए हों !

अनिरुद्ध निरुत्तर अनुपमा की तरफ घूम गया और फिर से पूछा :  खो गया मतलब अनु क्या हुआ तुम्हारे दोस्त को ?

अनुपमा  की आँखें डब डबा रहीं थीं !

अनिरुद्ध : क्या हुआ अनु ?

अनुपमा बह चली यादों की लहरों पर    .......

        मैं और फज़ल स्कूल से साथ साथ थे ! कॉलेज में भी साथ रहे ! फिर वो दिल्ली चला आया और अच्छी नौकरी करने लगा ! हम दोनों घर बसाना चाहते थे ! सब तय लिया था हमने सिर्फ घर के लोगो की मंजूरी के सिवाय ! अनुपमा की भीतर की यादों की नदी भावनाओं के किनारों को तोड़ती हुई बह चली थी अनिरुद्ध उनसे उठती शब्द फुहारों से पल पल भीगता जाता था !

फिर ? अनिरुद्ध ने वर्ड की फाइल को डेस्क टॉप सेव करते हुए पुछा !

        उस दिन दोपहर में फज़ल मेरे घर पर आया और हम मूवी देखने गए ! अभी पिछले महीने की ही बात है !उसको पहेली बार मिली थी मैं दिल्ली में उसकी नौकरी लगने के बाद !  दिन भर एन्जॉय के बाद  मैं  लौटी तो हमारे घर का माहौल कुछ बदला बदला लगा मुझे ! दरअसल मेरे पापा को अंदाजा हो गया था की हम दोस्ती को रिश्ते में बदलना चाहते हैं और उन्होंने मुझे  ताउजी के पास भेजने का फैसला किया था ! अगले दिन की ट्रैन थी डेल्ही से !

अगली सुबह मैंने अपनी छोटी बहन के थ्रू फज़ल को सब कुछ बता दिया !

          दोपहर को रुड़की से दिल्ली आये टैक्सी से फिर हमने ट्रैन पकड़ी और पटना के लिए निकल गए ! अगले दिन हम पटना में ताऊ जी के घर थे ! पापा का रिटर्न टिकिट अगले दिन शाम का था ! दोपहर में ड्राइंग रूम में रखे लैंड लाइन फ़ोन की घंटी बजी ! ताई जी ने फ़ोन उठाया और मुझे दिया ये कहते हुए की मेरी छोटी बहन है लाइन पर ! रिया के उन दो वाक्यों को सुनने के बाद उस दिन से मेरी ज़िन्दगी जीने की इक्छा खत्म हो गयी !

अनिरुद्ध : क्या कहा था उसने ?

          अनुपमा मोमबत्ती सरीखी निरंतर शब्द दर शब्द जलती जा रही थी और पिघलती जा रही थी :

         जब हम रुड़की से दिल्ली को चले थे तब उस रोज़ रुड़की से नई  दिल्ली रेलवे स्टेशन तक फज़ल भी हमारे पीछे पीछे आया था बाइक पर ! हमारी ट्रैन चले जाने बाद वापस लौट रहा था की रास्ते में उसका एक्सीडेंट हो गया और वो गुजर गया ! तब से मैं अकेली हूँ ! मैं परेशान रहती थी तो डाक्टर की सलाह पर मुझे कुछ बदलाव के लिए यहाँ  भेजा गया है ! वसीम अंकल मेरे पापा के दोस्त हैं !

अनिरुद्ध आवाक , अचेत और निःशब्द था !

तुम कहाँ खो गए हो ? अनुपमा ने अनिरुद्ध के कन्धों पर अपनी अँगुलियों को रखते हुए कहा !

यहीं हूँ ?

क्या सोच रहे हो ?

यही की मिलने के सौ बहाने और बिछड़ने के सिर्फ एक , वो भी ऐसे !

दोनों एक दूसरे को देख रहे थे ! कुछ  था जो खीच रहा था दोनों को !

अभी बात शुरू ही हुई थी की 4 बजे का हूटर बज उठा !

ऑफिस के पीयून " सोजल " ने लैब का दरवाज़ा खटखटाते हुए पुछा अनिरुद्ध भाई साब , अनुपमा दीदी आपके लिए चाय लाऊँ , पिएंगे ?

सोजल के शब्द ऐसे थे जैसे शांत जंगल में बरसते बादलों को किसी ने अचानक रुकने को कह दिया था !

हाँ सोजल ले आओ : अनिरुद्ध ने अपनी आँखों से टपकने को आतुर आंसुओं को टिस्शु पेपर से पोंछते हुए कहा !

कहाँ रहोगी तुम ?

वसीम अंकल के घर ही !

ओ के !

अगली सुबह !

गुड मॉर्निंग ऐनी ! अनुपमा अनिरुद्ध के बालों में अंगुलियां फेरती हुई बोली !

वाह ! गुड मॉर्निंग अनु लो ये तुम्हारे लिए !

कैडबरी सेलिब्रेशन का गिफ्ट पैक अनुपमा के हाथों में रखते हुए बोला !

          दिन भर एक दूसरे की बातें करते दोनों बहुत करीब थे ! जैसे नये रिश्ते बनने को थे की एक सुबह अनुपमा ने कहा !मुझे देखने कुछ लोग आने वाले हैं अगले संडे ! मुझे जाना होगा !

ओहह : अनिरुद्ध शांत सा बोला !

अनुपमा कुछ और सुनना चाहती थी किन्तु अनिरुद्ध से वो नहीं मिला तो वो संडे को अपने घर चली गयी !

संडे के बाद अनुपमा और अनिरुद्ध फिर से साथ थे !

क्या हुआ ? अनिरुद्ध ने पुछा !

अनुपमा : हाँ देख गए वो मुझे !

अनिरुद्ध : तुम्हारा क्या मन है ?

अब मुझे कुछ मन का करने का मन नहीं करता ! जब किया था तब हुआ नहीं ! अनुपमा बोली !

अनिरुद्ध : तो तुम वहां शादी लिए तैयार हो ?

अनुपमा : तुम  शादी करोगे ?

अनिरुद्ध : ये जवाब नहीं है !

अनुपमा : तो उत्तर समझ लो !

अनिरुद्ध : मतलब ?

अनुपमा : अब और मतलब क्या समझाऊँ ऐनी ?

अनिरुद्ध : ओह्ह !

एक हफ्ता बीत गया ! सब बातें हुई सिर्फ उस सब्जेक्ट पर ही दोनों खामोश  जाते थे  !

एक सुबह अनुपमा बोली : लड़के वालों ने मेरा ब्लड माँगा है !

अनिरुद्ध : वो क्यों ?

मेरा और उसका ब्लड टेस्ट होगा ! अनु बोली !

अनिरुद्ध : ठीक है फिर दे आओ !

तुम चलो मुझे लेबोरेटरी में ले कर यहीं पास में देना है ! अनुपमा ने सवाल के लहजे में आग्रह किया !

अनिरुद्ध अनुपमा को लेबोरेटरी ले गया और फिर घर छोड़ा !

अगले दिन से अनुपमा फिर कभी ऑफिस नहीं आयी !

कुछ साल बाद अनिरुद्ध के घर के बगल के घर पर लैंड लाइन पर फ़ोन आया !

अनुपमा की छोटी बहन रिया बात रही थी !

अनिरुद्ध : हेलो !

रिया : हेलो ! आप अनिरुद्ध बोल रहे हैं ?

अनिरुद्ध : जी , बोलिए रिया !

रिया : आपकी मम्मी की तबियत कैसी है ? दीदी ने जर्मनी जाने से पहले मुझ से कहा था पता करने को !

अनिरुद्ध : माँ तो नहीं रहीं !

रिया : ओह्ह ! ठीक है मैं दीदी को बता दूंगी !

अनिरुद्ध : अनुपमा कहाँ हैं ?

रिया : जी , शादी के बाद वो जर्मनी चली गयी !

अनिरुद्ध : ठीक है !

रिया : चलिए अनिरुद्ध जी रखती हूँ , फिर बात होगी आप अपना ख्याल रखियेगा !

अनिरुद्ध : जी , अनु को कहियेगा मुझे  याद रेहगीं , हमेशा !

और दोनों तरफ से फ़ोन रख दिया गया !

शाम होने को थी ! स्कूल बंद  चूका था !

सर , अब चलें !

बारिश होने को है ! बीनू ने विनम्रता से स्कूल की दीवार के सहारे खड़े अनिरुद्ध से आग्रह किया !

        बारिश होने को नहीं बीनू भाई , बारिश हो चुकी है कहता हुआ अनिरुद्ध अपनी भीगी आँखों को पोछता हुआ बीनू के कन्धों हाथ रख कर पलाश के पेड़ के नीचे खड़ी कार की तरफ चल दिया !

         कार अपनी रफ़्तार से घर की ओर चल दी थी ! घर कहाँ मकान था वो , जिनको घर बनाने वाली दो अनुपमा आते - आते कही और मुड़ गयी थीं ! कार के शीशे पर बारिश की बूंदों से बनती आड़ी टेढी रेखाओं के बीच कुछ तलाशता अनिरुद्ध बच्चों के शब्द सुनता जाता था जो उसने अपने iPhone  में रिकॉर्ड कर लिए थे  …… पोशम्पा पा …… भाई   पोशम्पा पा ……

एक कहानी : पोशम्पा पा ……



                                       ~~~~~~~~~~~~~~~  समाप्त ~~~~~~~~~~~~~~~~~

Thursday, July 24, 2014

एक कहानी : नीलायन !!

       "  नीलायन "  आसमान छूते चिनारों के बीच कोहरे से खेलता हुआ गेस्ट हाऊस की तरफ बढ़ रहा था , की किसी ने पुकारा  - चाय पियोगे बेटा ?  

        पुआल की छाई छोटी सी दूकान में उलटी सीधी बुनाई का दर्ज़नो रंग वाली ऊन से बना मफ़लर और स्वेटर जिसमे ऊपर नीचे बटन लगे थे  ! बेतरतीब , लेकिन साफ़ सफ़ेद रंग की गले में लिपटी चुन्नी ओढ़े हज़ारों तजुर्बों समेटे एक बुज़ुर्ग महिला पनीली आँखों से " नीलायन " की तरफ देख रही थी ! 
 
      गठीले शरीर का २३ - २४ साल का लड़का नीलायन कानो से ईयर फ़ोन निकालते हुए झुक कर दूकान में दाखिल हो गया ! एक करिश्माई खिचाव था उस आवाज़ में ! सवेरे मॉर्निंग वॉक के बाद रोज़ ताज़े फलों का जूस पिने की आदत वाला नीलायन , आज चाय की ऑफर को टाल नहीं सका था !
 
नीलायन : जी , आम्मा जी पिलाइये आज , चाय ही पियेंगे !
 
        बड़ी ही सादगी और अपनत्व से पास रखे स्टूल पर बैठते हुए उसने मोबाइल का स्विच ऑफ किया और पूरा ध्यान चूल्हे और अदरक कूटती बूढी कलाइयों पर केंद्रित कर लिया ! गहरे आसमानी रंग की  टी शर्ट ! काजली काले रंग के शॉर्ट्स ! मंहगे स्पोर्ट्स शूज़ और सफ़ेद जुर्राब ! सर्दी की सुबह भी हलके पसीने में लाल चेहरे वाला सुन्दर और सोबर किशोर नीलायन अम्मा की चाय का इंतज़ार करने लगा !
 
ये , लो बेटा !
 
बूढी अम्मा ने काँच के गिलास में चाय आगे बढ़ाई और पुछा : मठरी खाओगे ?
 
नीलायन : जी हाँ , दे दीजिये !
 
वो सामने रखी काँच के मर्तबान है , जीतनी चाहे ले लो : अम्मा बोली और अपने लिए चाय छानने लगी !
 
          एक हाथ में चाय और दूसरे से मठरी का स्वाद लेते हुए नीलायन अम्मा को एक टक देखता जा रहा था और सोचता था की आज क्या हुआ उसे , बचपन से किस हाइजीनिक माहौल में पला बढ़ा और नौकरों की देख रेख में बड़ा हुआ और आज अचानक ये  उसे क्या सूझी की सड़क किनारे लकड़ी के चूल्हे पर पकती काले से बर्तन की चाय और मठरी खाने लगा ? क्या था उस अम्मा की आवाज़ में की जो सब पर भारी पड़ गया ? एक बार भी ख़याल नहीं आया की माँ को पता चला तो  क्या होगा ? साथ में आये किसी डेलीगेट मे से किसी ने देख लिया तो क्या सोचेंगे उसके बारे में ? अगर मेडिकल टीम को खबर लगी तो विजिटिंग इंश्योरेंस तो इमिडिएट खत्म देंगे और दिल्ली लौट कर इंस्टिट्यूट में जो जवाब देना पड़ेगा वो अलग ! 
 
    नीलायन की पलकें झपक ही नहीं रहीं थीं ! चाय और मठरी अपने आप बारी - बारी से होठो तक चले जा रहे थे ! दिमाग कहीं और था , शरीर कहीं और तो आँखे कुछ देख कर संतुष्ट थी , मन और जुबान को चाय मठरी ने कंट्रोल किया हुआ था !

बीच बीच में कोहरा चूल्हे की नज़र बचा कर नीलायन गालों को छु जाता था ! होठ खुश्क होते जाते थे !

इसी  बीच अम्मा की आवाज़ ने उसका ध्यान तोडा :  लाओ थोड़ी और गरम चाय डाल दूँ बेटा गिलास में ठण्ड ज़्यादा है ना और कोहरा भी है  !
 
     नीलायन ने झट से गिलास चायछन्नी के नीचे कर दिया और दूसरे हाथ से दूसरी मठरी निकाल कर चाय में डुबोते हुए बुदबुदाया : आप , बहुत अच्छी चाय बनती है !
 
अम्मा : अच्छी लगी तुम्हे ?
 
नीलायन : जी , बहुत बढ़िया ! 

ये होठो पर खुश्की बहुत है तुम्हारे , लो ये थोड़ी सी मलाई लगा लो !

नीलायन : नहीं अम्मा जी गेस्ट हाउस में वेसलीन है , लौट का लगा लूँगा !

अम्मा : हाँ हाँ , वो तो लगा लेना , तब तक ये लगा लो !

नीलायन ने हलके से दो अँगुलियों से मलाई होठो पर लगाते हुए पुछा : इतने जंगल में आप अकेले रहती हैं ?

अम्मा : नहीं तो , ये लोग हैं ना मेरे साथ !

नीलायन : कौन लोग ?

अम्मा : ये पेड़ पौधे, पंछी , आस पास के जानवर !

नीलायन : कोई अपना नहीं है आपका ?

अम्मा : सब अपने ही तो हैं !

नीलायन : मेरा मतलब आपके नाते रिश्तेदार और कोई भी !

अम्मा : अच्छा वैसे , सब थे लेकिन एक एक कर के चले गए !

नीलायन : कहाँ चले गए ?

अम्मा : तरक्की के रस्ते पर !

नीलायन गंभीर हो गया था !

सर्द हवाएँ अपने साथ धुंध लिए घूम रहीं थीं की कहीं रौशनी दिखे तो जकड कर स्याह कर दे , कुछ पलों के लिए ही सही !

       चाय खत्म होने को थी और समय ज़्यादा हो चला था ! सूरज का नमो निशाँ नहीं था जिसमे सिहरन बढ़ती जाती थी की तभी स्टूल के नीचे मखमली एहसास हुआ उसे अपने घुटनो के पास , जैसे कोई मलमली चीज़ उस से चिपकती जाती थी गर्म एह्साह के साथ ! उसने देखा छोटा दूधिया रंग का मेमना उसके दोनों पाओ के बीच लगभग बैठ गया था ! नीलायन असमंजस में था की क्या करे !  उस मेमने के विशवास को तोड़ कर उसे खुद  से अलग कर दे या फिर वहीँ बैठा रहे उसके उठने और हवाओं के थमने तक !

नीलायन उठ ना सका किसी के विशवास पर खरा उतरने के लिए !

अम्मा ने धुंध और कोहरे में सिकुड़ती हुई चुप्पी तोड़ी  :  तुम यहाँ जंगल में कैसे ? कहाँ के हो बेटा ?

जी , हूँ तो पहाड़ का ही लेकिन बचपन दिल्ली में गुजर गया और जवानी में काम मिल गया तो शहर शहर घूमता फिरता हूँ : नीलायन ने मेमने की गर्दन को अपने पाँव के पंज्जों पर ठीक से सहारा देते हुए जवाब दिया !
 
बेटा लो ये शॉल पाँव पर रख लो , ठण्ड लगती होगी ! कहते हुए अम्मा ने एक चटक लाल और सफ़ेद रंग का शाल उसकी तरफ बढ़ा दिया जिसे नीलायन ने सलीके से अपने दोनों पाओ पर ऐसे रखा की नीचे बैठे नन्हे जीव के आनंद में खलल पड़े  !
 
नीलायन : अम्मा आप कभी अरुणाचल प्रदेश गयी है ?
 
अम्मा : नहीं तो , पर क्यों ?
 
नीलायन : ऐसे शॉल वहीँ मिलते हैं , इस लिए पूछ  रहा था !
 
अम्मा : अरे नहीं मेरा सबसे बड़ा बेटा शायद वहीँ रहता है , आया था पिछले बरस बहुत सा सामान दे गया उनमे से एक ये भी था !
 
आपके कितने बेटे हैं : नीलायन ने गंभीरता से पुछा !
 
अम्मा : दो !
 
दोनों आपके पास नही रहते ?
 
ना !
 
वो क्यों ?
 
बस वो खुश हैं वैसे ही और में खुश हूँ ऐसे ही !
 
कभी याद आती है उनकी ?
 
        हमेशा याद करती हूँ ! इस संसार में अपनों के नाम पर वो दोनों और उनका परिवार ही है लेकिन सब दूर हैं और इस तेज़ चलते संसार में मेरे पास रह कर वो पीछे छूट जाएंगे इस लिए मैं उनकी दूरी ही अपना भाग्य और उनका भविष्य समझती हूँ !

अम्मा ने चूल्हे में थोड़े लकड़ी के कोयले झोंकते हुए बोली !

नीलायन जैसे जड़ हो चला था ! घुटनो तक के शॉर्ट्स में टंगे ठण्ड से कपकपा रही थी लेकिन रिश्तो नातों की धधकती आँच से सब कुछ जैसे मस्तिष्क में पिघल सा रहा था !
 
 
एक नहीं , अनगिनत द्वंदों ने घेर रखा था उसको !
 
उलझन !
 
उधेड़बुन सब अप्रयाषित !
 
       ये सब क्यों किया हुआ है उसने खुद ! इतना अच्छा जीवन है ! काम है , दोस्त हैं , कोई कमी नहीं है  फिर भी कम क्यों आँकता है वो  खुद को इन सब के बीच ? क्या समेटने की कोशिश में है वो की बार बार फिसल जाता है ? इतनी उम्र में नई ज़िन्दगी के ख्वाब देखने वाले किशोर युवक के सामने ये क्या समय है की वो खुद से बार बार हार जाता है और जिन्हे जीताने के लिए हारता है वो और कमज़ोर दिखाई देने लगते हैं ! क्या करे नीलायन , किस आसमान को चुने की उसके एक अकेले की सांस की पतंग कितनी डोरियों से एक साथ सब से बंधी रहे और एक से दूसरी डोरी को पता भी ना चले की वो किस के सहारे से नीलाभ में उड़ रहा है  ! लेकिन कब तक करेगा वो ये सब ? एक अंतहीन सफर सा लगता है  !

क्या हुआ बेटा ? कुछ परेशानी है ? नीलायन के कन्धों पर हाथ रखते हुए अम्मा ने पुछा !

नीलायन को अचानक जैसे अम्मा ने अपरिभाषित संबंधों की धधकती आँच से दूर कर लिया था !

हाँ हूँ तो ! नीलायन ने सर नीचे की तरफ अपने जूतों से मिटटी कुरेदते हुए रूंधे गले से कहा !

अम्मा उसके और करीब आ कर बैठ गयी थी अब !

क्या हुआ , मुझ से कहो मन हल्का लगेगा !

नीलायन की आँखों से कुछ बूंदे मेमने के कानो पर पड़ी, अनमना सा हो कर फिर भी वो लिपटा रहा उसके पैरों से !

            क्या बात है बेटा बताओ मुझे , अम्मा ने चूल्हे से दूध का पतीला नीचे उतार दिया था और पास आ कर बैठ गयी थी उसके पास ! नीलायन की गालों पर उतरती आंसूओं की बूंदें सुर्ख गुलाबी रंग पर बेरंग रेखाएँ खींच रहीं थी ! अम्मा ने उन्हें पोंछते हुए कहा ! बोलो बेटा , अंदर ही अंदर मत घुटो सब कह डालो मुझ से मैं हूँ यहाँ जो सब कुछ सुनेगी !

            नीलायन छोटे बच्चे सा अचानक ज़ोर ज़ोर से रोने लगा ! बरसों से घुटन का बुलबुला तेज़ आवाज़ और आंसुओं के साथ फूट गया था ! शांत पहाड़ और सलीके से बहते कोहरे के बीच अम्मा की गोद में सर रख कर रोता नीलायन किसी झरने सा फूट गया था जिस से रिसती गरम आँसुंओं और आवाज़ के रूप में भावों की धाराएं कभी कभी अम्मा को भी धैर्य खोने पर मज़बूर कर देती थी !
 
           धीरे धीरे शांत होते , सुबकते नीलायन को बिलकुल नहीं रोका अम्मा ने ! रो लेने दिया  ! बह जाने दिया २५ साल की धार को अपनी गोद में जिसे तलाश थी बरसों से एक शिवजाटा की जो थाम सके ये सैलाब ! दूकान में शरण लेता कोहरा धुंध अब सुस्ता रहे थे ! मेमना किनारे खड़ा हो कर उसे देखता था , अचंभित !

अम्मा ने नीलायन के सर पर हाथ फेरा ! वो शांत था !

          जैसे चूनापत्थर में कुछ बूँद पानी के पड़ते ही तेज़ प्रतिक्रिया के बाद शांत हो कर सब कुछ सौंप देते है पानी को , आज नीलायन गले तक भरे उलझन और द्वंदों के पत्तथरों को अम्मा के नेह रुपी पानी में घोल चूका था और बह चला था सर को उनकी गोद में रखे रखे अपनी उलझन बताता हुआ !

        अम्मा जी सब हैं ,  माँ हैं , पिता हैं , बड़ा घर है , नौकर चाकर हैं और आज के ज़रूरतों के लिए जो चाहिए वो सब है बल्कि उस से भी ज़्यादा है लेकिन ये सब पिछले १० सालों से मुझे खुशियां नहीं देता ! मुझे परेशान करता है !

अम्मा ने पुछा : वो क्यों बेटा ?

         तब मैंने दसवीं पास करी थी ! जैसे सब नानी के घर जाते हैं मैं भी गया था ! एक रात सब गर्मी के कारण बड़े से मकान की छत पर सो रहे थे ! मेरी आज की माँ भी सो चुकी थीं ! मुझे नींद नहीं आई इस लिए मैं जाग रहा रहा तब मैंने अपनी छोटी मौसी को नानी से बात करते सुना ! वो कह रही थीं की ये अच्छा हुआ की बीच वाली दीदी के बेटे को हमने बड़ी दीदी को दे दिया इसकी भी ज़िन्दगी बन गयी और हमारी दीदी की भी जान बच गयी !

   दरअसल मेरी आज का माँ मेरी बायोलॉजिकल माँ नहीं है ,और वो ये जानती भी नहीं हैं ! उस दिन तक मुझे भी पता नहीं था ! अब मुझे पिछले १० - १५ सालों से दोहरी ज़िन्दगी जिनि पड़ रही है !

        माँ को देख कर उनसे हिम्मत नहीं होती सच्चाई कहने की और कभी असली माँ से मुलाक़ात होती है तो उनकी आँखों में अपनत्व देख कर और चाह कर भी उनसे मन की कह नहीं पाता की मैं जनता  हूँ की आप मेरी माँ हैं ! पिता जी  के पास जा कर मैं झगड़ नहीं सका उस दिन के बाद से किसी भी चीज़ के लिए अधिकार से ! वो अधिकार मुझ से किसी  ने छीने नहीं लकिन मैंने खुद को उनके लिए कमतर मानना  शुरू कर  दिया !  ये सब मेरा है नहीं मुझे तो बस दिया गया है किसी की जान बचाने के लिए तो किसी  का बोझ कम करने के लिए !

       अम्मा करुणा के पानी से भीगे नीलायन के शब्दों को सुनती जाती थीं और समझने की कोशिश करती थी की कैसे जीता था नीलायन सब जान कर भी अनजान रहते हुए की कही किसी को ठेस ना पहुंचे ! कितना परेशान रहा होगा ये बच्चा  ! किस से कहे की वो सब जनता है जो उसको नहीं जानना चाहिए था और उस से भी बड़ी बाद वो किसी को कहता नहीं की कही किसी के इतने सालों के बना रेत का क़िला ढह ना जाये ! सब कुछ अपने ऊपर ही झेलता हुआ रहा और आज ज़रा सा सहारा मिला तो निरंतर बह निकला , भरभरा गया !

अम्मा की गोद में सर रखे नीलायन सब कहता कहता कर शांत हो चूका था की उन्हें लगा की कोई तीसरा भी वहां था जो ये सब सुन रहा था !
 
आप कौन हैं ? अम्मा ने पीछे देखा तो गले तक सुन्दर कला ऊनी मफ़लर पहने एक सोबर लड़की नीले काले स्वेटर में खड़ी शांत हो कर सब सुन रही थी !
 
कौन हो आप ? अम्मा ने दोबारा पुछा !
 
नीलायन भी अब तक संभल चूका था , उसने उठते हुए देखा तो दूर उसकी बैचमेट खड़ी थी !
 
अरे , तुम यहाँ कब आई निहारिका ? : नीलायन ने अपनी सूजी हुयी आँखों को पोंछते हुए पुछा !
 
निहारिका डबडबाई आँखों से जवाब में मुस्कुरा दी !
 
अम्मा जी ये निहारिका है , हम साथ में काम करते हैं और इस ट्रिप में साथ आए हैं !
 
अम्मा निहारिका को और निहारिका निलायन को देखे जा रहे थे !
 
क्यों तुमने सब मुझ से शेयर नहीं किया इतने दिन ? निहारिका ने गंभीरता से पुछा !
 
नीलायन : क्या , शेयर करना था ?
 
निहारिका : जो कुछ आज मैंने सुना !
 
नीलायन : क्या ? तुम ने सब सुना ?
 
निहारिका : हाँ , एक एक शब्द सुना !
 
नीलायन : ओहह , तो फिर हम आज के बाद ना मिले  ?
 
नहीं , आज के बाद ऐसे बंधन में बंध जाएंगे की फिर अलग ना हो : निहारिका बोली !
 
          अम्मा जी ने चाय की केतली गर्म करने को चूल्हे पर रख दी थी ! मेमना शॉल के साथ दुबका बैठा था और दूर चिनारों से सूरज झाँकने की कोशिश कर रहा था की भविष्य कैसे आकार लेता है दो मानस के मध्य !
 
        लो बेटा चाय पियो और भूल जाओ उन सब बातों को जो तकलीफ देती हैं , साथ दो सिर्फ उस का जो आनंद देता हो और साथ चले !
 
नीलायन और निहारिका हाथो में हाथ डाले गेस्ट हाउस की तरफ बढ़ चले अम्मा की तरफ हाथ लहराते हुए फिर आने के वादे के साथ !
 
अम्मा , मेमना , चूल्हा, चाय की केतली और मठरी का मर्तबान उन दोनों को जाते हुए देख रहे थे वापस आने की आस में !
 
 
एक कहानी : नीलायन 
 
                                                               ** समाप्त **

Friday, June 27, 2014

एक कहानी : " सेतु "

         " कसौनी " की एक पहाड़ी पर सूरज ऊँघ रहा था ! नीचे तलहटी में ठंडी हवाएँ कोहरे को गोद में उठाये लहरों पर सफर पे निकली थी ! परमहंस त्रिपाठी अपने बंगले में पूरे जोश से जलते अलाव के सामने बैठे नीबू की चाय का आनंद ले रहे थे की अचानक काँच के बर्तन के टूटने की आवाज़ ने उन्हें उस बेहद सर्दी की शाम कंपकपा दिया ! "
 
          मुझ से ये टूट गया !  स्वेटर कोहनियों तक चढ़ाये , हाफ नेकर में , गले में गुलाबी मफलर और सर पर मंकी टोपी पहने  सौम्य उनके सामने खड़ा था , डरा सहमा हुआ !
 
सफ़ेद पश्मीना का दोशाला ठीक करते हुए त्रिपाठी जी ने उसे देखा और मुस्कुराते हुए बोले : एक कप और चाय ले कर आओ !
 
सौम्य : साब , मुझ से ये टूट गया !
 
त्रिपाठी जी : हाँ ,वो तो देख रहा हूँ !
 
सौम्य : तो ?
 
त्रिपाठी जी : तो क्या ?
 
सौम्य : आप मुझे कुछ नहीं कहेंगे ?
 
त्रिपाठी जी : हाँ कह तो  रहा हूँ , एक कप और चाय ले कर आओ !
 
सौम्य हाथों में पकडे टुकड़ों की तरफ देखता हुआ रूंधे गले से बोला: ये बहुत महंगा था ना साब !
 
त्रिपाठी जी : भाई , इस वक़्त मुझे चाय चाहिए और उसकी कीमत मुझे पता है इस समय , तुम गए की में खुद जाऊं किचन में ?
 
सौम्य भागता हुआ किचन में गया और कप भर लाया !
 
सौम्य कप को उनकी तरफ बढ़ाते हुए बोला : साब , आप मुझे कुछ क्यों नहीं कहते इतना नुक्सान होने के बाद भी ?
 
त्रिपाठी जी फिर मुस्कुराये और बोले : बाहर से एक गुलाब का फूल तोड़ कर लाओ और लौटते वक़्त दरवाज़े के शीशे मत बंद करना ! बाहर की बत्ती जला देना और गेट पर ताला मत लगाना आज !
 
सौम्य : फिर तो ठंडी हवा और कोहरा अंदर आ जाएगा !
 
त्रिपाठी जी : हाँ , आने दो , तुम गुलाब के कर आओ , फिर बात करते हैं !  और हाँ , अपना ट्रैक सूट पेहेन लो ठण्ड बढ़ रही है ! होमवर्क पूरा नहीं हुआ हो तो वो भी लेते आना ! 
 
त्रिपाठी जी कंधे से सरकते दोशाले को ठीक करते हुए बोले !

     सौम्य उठा और ढलती शाम के सहारे धरती पर उतरते कोहरे की चादर के बीच से होता हुआ लॉन के दूसरे छोर कर लगे गुलाब को ले आया ! बाहर की लाइट जला दी ! पड़ोसियों के घर से हलवे के लिए देसी घी में भुनती सूजी की खुशबू ने उसे कुछ देर दरवाज़े पर ही रोके रखा !

त्रिपाठी जी : क्या हुआ सौम्य, अंदर आ जाओ !

सौम्य ने दरवाज़ा बंद किया और गुलाब का फूल ले कर अंदर अपने कमरे में चला गया ! ट्रक सूट पहना और फिर त्रिपाठी जी के पास आकर फूल उनकी तरफ बढ़ाते हुए बोला : ये लीजिये !
 
          त्रिपाठी जी एक बड़ी यूनिवर्सिटी के रिटायर VC थे तो गंभीरता स्वभाव में ऐसी थी जैसे रंगीन काग़ज़ पर उकेरी गयी स्याह तस्वीर !

         अलाव में जलती लकड़ियों की चरमराहट ने अनोखा संगीतमय माहौल सृजित कर दिया था ! पहाड़ों के शांत आँचल में अटखेलियां करती नदी की लहरें और उनसे उठता तरन्नुम अपनी और खींचता था तो दूर खिलते चाँद को बाग़ में फूटते हरश्रृंगार की खुशबू टिमटिमाते तारों को खूबसूरत घरती का रास्ता दिखाती थीं !
 
सर, वाक़ई आप मुझे कुछ नहीं कहेंगे ?

सौम्य ने  गंभीर होते वातावरण में हलके से शाब्दिक कंकरी उछाली !
 
त्रिपाठी जी लगभग ऊँघ रहे थे !
 
सर, काफ़ी महंगा होगा ना वो जो मुझ से टूट गया ? सौम्य ने फिर कोशिश करी ! 
 
हाँ , महंगा तो था बेटा !

त्रिपाठी जी ने पहला प्रश्न भी सुना था किन्तु उत्तर बाद वाले का दिया , कुर्सी पर ठीक से पीछे सरकते हुए !
 
सौम्य : तो सर अब मैं क्या करूँ ?
 
त्रिपाठी जी : क्या , अभी तक टुकड़े डस्टबीन में नहीं रखे ?
 
सौम्य : हाँ , वो तो डाल दिए, लेकिन  ……। 
 
त्रिपाठी जी : क्या चाहते हो ?
 
सौम्य : सर, मुझे आत्मग्लानि हो रही है !
 
त्रिपाठी जी अपनी आराम कुर्सी से उठे और सौम्य के करीब आ कर गाढ़ी लाल रंग की कालीन पर बैठ गए !
 
सौम्य सिकुड़ सा गया ! वैसे ही जैसे छुई मुई के पत्ते सिकुड़ जाते हैं गंभीर स्पर्श से !
 
      जब मैं तुम्हारी उम्र का था तब आया था दिल्ली और वही पर मेरी मुलाक़ात हुई थी विष्णु से ! चांदनी चौक पर जब में भटक रहा था तब मुझे विष्णु ने सहारा दिया था ! दो हफ्ते उसके साथ ही रहा था ! पटरियों के किनारे उसके झोपड़े में !
 
          विष्णु का दिन शुरू करता था भगवान की पूजा से ! उस झोपड़ी में जिसका खुद का कोई भविष्य नहीं था वो अपने और फिर दो हफ़्तों तक मेरे अच्छे भविष्य की कामना करता था ! फिर वो निकल पड़ता था काम पर ! ढेर सारे फूल और उनकी खुशबू के बीच उसका दिन गुजरता था ! कभी गुलाब की पंखुड़ियों का गठर उठाना तो कभी मोतिया के लच्छों को यहाँ वहां पहुचना ! कभी गेंदे के फूलो को तोड कर ढेर बनाना तो कभी रजनीगंधा की कलियों पर पानी का छिड़काव ! कभी  अशोक के पत्तों की लड़ियाँ बनाना तो कभी सूखे हुए फूलो को ठिकाने लगाना ! पूरा दिन फूलों के बीच ! चाय पानी , खाना पीना , नाश्ता और फिर घर शाम को थक हार कर आ जाना ! दिन में कभी गुरूद्वारे में लंगर कर लिया तो कभी जैन मंदिर में प्रसाद खा लिया ! कभी लाजपतनगर में पीपल के पेड़ के नीचे छोले भठूरे खा लिए तो कभी दूर लाल क़िले के पास छोले कुलचे का स्वाद ले लिया ! दो हफ्ते मैंने ही किया ये सब ! फिर पता लगा की अपनों का होना कितना ज़रूरी है इस दुनिया में जब तक आप ज़िंदा हैं !
 
त्रिपाठी जी सौम्य के कन्धों पर हाथ रखे रखे बोल रहे थे और सौम्य अपने वर्तमान को समझने की कोशिश करता था हर शब्द के साथ !
 
त्रिपाठी जी ने आगे कहना शुरू किया :   एक रोज़ सुबह सवेरे छुट्टी का दिन था पिताजी रात देर से लौटे थे ! हम दोनों भाई खाना का कर उछल कूद कर रहे थे की मेरी निगाह पिता जी के स्टडी टेबल पर रखे सुन्दर गोल्डन कैप वाले फाउंटेन पेन पर पड़ी और मैंने झट से उठा लिया ये कहते हुए की ये मैं लूँगा ,बस छोटे भाई से मेरी खींचा तानी हुई और ऐलुमिनियम का गोल्डन प्लेटेड कैप ज़मीन पर गिर गया और उस पर मेरा पैर पड़ गया !

वो चिपटा हो गया था !

पिता जी कच्ची नींद में थे , रात देर से सोये थे वापस लौटने के बाद !

         हमारा शोर अचानक से  रुक गया और वही सन्नाटा कारण बना पिता जी के नींद से जागने का , उन्होंने ज़मीन पर पड़े चिपटे कैप को देखा और एक तमाचा जड़ दिया मेरे गुलाबी गाल पर ये कहते हुए की : तुम बड़े हो सिर्फ उम्र से अकल से कब बड़े होओगे ? दे देते छोटे भाई को , कम से कम नुकसान से तो बच जाते !

         ये सब इतना अचानक हुआ की कुछ समझ नहीं आया ! माँ , बड़ी दीदी ,  घर में काम करने वाली आंटी और पड़ोस से आई एक दीदी की सहेली सब देख रहे थे ! अच्छा नहीं लगा मझे !

मुझे पता नहीं क्या सूझा और मैंने जवाब दिया पिता जी को : क्या मुझे पीटने से नुकसान की भरपाई हो गयी आपकी ?  इसके जवाब में एक और तमाचा मेरे गाल पर पड़ा और फिर माँ ने मुझे अपने से चिपका लिया !

          पूरा दिन और पूरी रात मेरे दिमाग में ये सब चलता रहा ! क्यों किया पिताजी ने मेरे साथ ऐसा सब के सामने ! मुझे कितने सवाल खुद से करने पड़ रहे थे और उनके जवाब ढूंढने निकल पड़ा मैं देर रात एक चप्पल और वही टूटा कैप का पेन ले कर सुनसान रस्ते पर ! रोडवेज़ की बस से दिल्ली पहुंच गया ! वहीँ विष्णु ने मुझे से गेंदे के फूलों का गट्ठर सर पर रखने की मदद मांगी और फिर बातों बातों में मैं उसके साथ हो लिया !
          
         पूरे दो हफ़्तों बाद पता लगा की अपनों की कमी …………तब ज़यादा लगती है जब आपको पता हो की आपके आपने आपके आस पास हैं लेकिन आपके साथ ना हों !

        कुछ दिनों के बाद विष्णु ने ही मुझे मेरे घर भेजा ! उसने सब किया मेरे लिए ! मेरे घर पर इत्तला दी ! फिर पढ़ाई लिखाई और सरकारी नौकरी ! मैं विष्णु को भूल ही गया था जैसे ! कई बार सोचा अपनी ट्रांसफर वाली नौकरी में एक बार तो फूल बाजार जा कर पता करूँ विष्णु के बारे में लेकिन अफ़सोस मुझे समय नहीं मिला और समय निकलता गया !
               
         सौम्य गुमसुम सा सब सुनता जाता था ! बाहर ठंडक बढ़ गयी थी ! भीतर यादों की ताप से वातावरण गरमाया सा था और त्रिपाठी जी बोलते जाते थे !
 
        त्रिपाठी जी ने पानी का गिलास पास की टेबल पर रखते हुए आगे कहा :

          एक रोज़ जब यूनिवर्सिटी के काम से दिल्ली में था तो अचानक उस से मुलाक़ात हो गयी ! वो अब भी फूलों के करीब था ! फ़र्क़ था तो इतना की नगर निगम के पार्क में कॉन्ट्रैक्ट के माली के रूप में ! मैं चांदनी चौक पर नई सड़क की तरफ मुड़ने वाली सड़क के कोने पर रखे लंबे बेंच पर दरी वाले के सामने खड़े छोले कुलचे वाले से नीम्बू लेने को मुड़ा ही था की वो मुस्कुराता चेहरा मुझे दिखा ! बरसों पहले वाली ही मुस्कान ! तज़ुर्बा चहरे की झुर्रियों  से बाहर झांकता था तो भावनाओं के पानी से सूख चुकी आँखें भीतर गड़ी जाती थीं ! हम अचानक मिले थे ! उसे याद  मेरा नाम हंस !
 
सौम्य : आप उनको लेकर अपने साथ आ गये ?
 
त्रिपाठी जी : नहीं ,वो नहीं आया ?
 
सौम्य : तो अब वो क्या वही रहते हैं ?
 
त्रिपाठी जी : हाँ शायद !
 
सौम्य : फिर आप कभी नहीं मिले उनसे ?
 
ना : त्रिपाठी जी बोले !
 
घने होते कोहरे के बीच बाहर दरवाज़े पर कुछ आहट हुई !
 
त्रिपाठी जी : देखो तो सौम्य !
 
सौम्य दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा !
 
अरे दादा जी आप यहाँ अचानक ? कुछ खबर नहीं दी ?  : सौम्य किसी से पूछ रहा था !
 
त्रिपाठी जी भी पश्मीना का दुशाला ठीक करते करते दरवाज़े के करीब आ गये थे !
 
कौन है सौम्य ? त्रिपाठी जी ने बाहर टिमटिमाते बल्ब की धुँधली रौशनी में देखने की कोशिश करते हुए पुछा !
 
मेरे दादा जी है : सौम्य ने चहकते हुए जवाब दिया !
 
इतनी रात में और यहाँ ? तुमने तो कभी इनका ज़िक्र नहीं किया ! ठीक है अंदर आओ उनको ले कर बाहर ठंडक है बढ़ रही है : त्रिपाठी जी बोले !
 
          चहरे पर हलकी सी दाढ़ी ! मुस्कुराता चेहरा ! आँखों पर पुराना ऐनक और एक हाथ में छड़ी लिए एक व्यक्तित्व धीरे धीरे अँधेरे से रौशनी की तरफ बढ़ रहा था ! भीतर खड़े त्रिपाठी जी के चहरे पर की सिकुड़न विस्तृत होती जाती थी और होठो से अचानक शब्द निकले : अरे , विष्णु तुम ?
 
        दो बीतते युग आमने - सामने थे और उनके बीच खड़ा वर्तमान जो अभी अभी बीते कल के सफर से गुजरा था अपने भविष्य की राह देखता था दोनों की बाँहों के सहारे ! स्तब्ध और शांत ! अलाव की लकड़ियाँ चरमराते हुए आवाज़ लगा रही थी की करीब आओ और जमीं हुयी यादों एवं प्रश्नो की बर्फ को पिघलने दो !
 
         रात के खाने के बाद सौम्य तो सो गया तब विष्णु ने सब कहा : बहुत साल पहले मुझे सौम्य मुझे स्टेशन पर भटकता मिला था जिसे मैंने अनाथश्रम में रखवा दिया ! वहाँ से तुम उसे अपने साथ ले आये ! ये जब भी मौका मिलता मुझे मिलने ज़रूर आता था वही सरदार पटेल की मूर्ति वाले पार्क में ! हम दोनों एक एक कंचे वाली ठंडी निम्बू पानी की बोतल पीते और फिर उसको मैं बस में बैठा कर वापस आ जाता ! स्कूल यूनिफार्म में खूब अच्छा लगता है मुझे ये ! जब तुम रिटायर हुए तब इसने मुझे बताया की तुम दूर पहाड़ पर रहने जा रहे हो और वहां का पता दिया !  
 
           रिटार्यड परमहंस त्रिपाठी और विष्णु की आवाज़ें गुजरती रात के साथ - साथ मद्दम होती जाती थीं और दूर बहती नदी पर बने सेतु से गुजरते रात के मुसाफिरों की फुसफुसाहटों से सन्नाटा बार - बार नींद से जाग जाता था ! बगल के कमरे में सोता इन दोनों के बीच का सौम्य रूपी " सेतु " भविष्य के आगंतुकों की राह तकता था करवटें बदलते हुए चादर की सलवटों में गुलाब की पंखुड़ियों सा !
 
एक कहानी  : " सेतु " 
 
                                            **********  समाप्त **********

Wednesday, May 28, 2014

एक कहानी : वो गुलाबी पेन !!

            विशाखा अपने दफ़्तर में बैठी किसी का इंतज़ार कर रही थी ! उसकी निगाहें टिक - टिक करती पुरानी पेंडुलम वाली घड़ी पर टिकी थी ! खिड़कियों से आती जाती ठंडी हवांयें पास के मंदिर से लोहबान की खुशबू आपने साथ ले आती थीं ! सड़क पर शोर कुछ कम हो चला था ! पास के स्टेशन से आखिरी ट्रैन के अनाउंसमेंट हो चूका था ! पास के मोहल्ले में लगने वाली साप्ताहिक पैठ से अपनी दुकानदारी समेट कर व्यापारी वापसी  पर थे ! सब दीखता था विशाखा की पीछे वाली खिड़की से ! शाम रात में तब्दील होने को बैचैन थी की अचानक दरवाज़े पर तैनात सिपाही ने सेल्यूट करते हुए विशाखा का ध्यान अपनी तरफ खींचा !
 
जनाब, कोई आबिद आप से मिलना चाहते हैं !
 
विशाखा ने सम्भलते हुए कहा : हाँ , उन्हें अंदर भेजिए !
 
सिपाही ने फिर से सेल्यूट किया और गर्वीले अंदाज़ में घूम गया !
 
आओ आबिद आओ , कोई परशानी तो नहीं हुई आने में ! विशाखा ने २३ , २५ साल के युवक आबिद से ममता भरी आवाज़ में कहा ! अपनी सीट से उठ कर  लगभग दरवाज़े तक आ गयी थी वो आबिद को लेने के लिए  !
 
        आबिद , एक लम्बा अच्छी डिल डॉल वाला, नव युवक सुन्दर गोल चेहरा , नीली आँखे , काले रंग की टी शर्ट और डार्क ब्लू कलर की जींस में दरवाज़े की चोखट पर खड़ा झिझक रहा था रौबीली विशाखा के बड़े से दफ्तर में कदम रखने से ! वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक थी वो जिले की ! ये पहली पोस्टिंग थी विशाखा की इस वरिष्ठ पद पर ! लगभग १५ सालों बाद मिल रहे थे दोनों एक दूसरे से !
 
आबिद ने विशाखा के पैर छुये और नमस्ते कहा !
 
डबडबाई आँखों से विशाखा ने आबिद को उठाते हुए उसका माथा चूमते हुए गले से लगा लिया !
 
विशाखा : आ , बैठ यहाँ !
 
         बड़े बड़े सोफों पर बैठने के इशारा करते हुए विशाखा ने आबिद का बैकपैक ले कर सिपाही से अपनी गाड़ी में रखने को दिया और थोड़ी देर में निकलते हैं कह कर तैयारी करने को कहा !
 
सिपाही ने जी जनाब कहते हुए लॉगबुक आगे कर दी !
 
विशाखा : आबिद वो पेन पकड़ाना !
 
आबिद ने अपनी जेब से एक पेन निकाल के विशाखा की तरफ बढ़ा दिया और विशाखा ने लॉगबुक पर सिग्नेचर कर के पेन आबिद की तरफ़ वापस बढ़ाया ,
 
तभी आबिद ने पुछा :
 
दी , आपको ये पेन याद है ?
 
विशाखा को जैसे किसी ने बर्फ के टुकड़े से छू दिया हो , ये प्रश्न ऐसा था उसके लिए !
 
आबिद : दीदी ,आपको ये पेन याद है ?

विशाखा : हाँ रे , इसी पेन से हो हमारी दोस्ती हुई थी ! वाह , तूने ये अभी तक संभाल कर रखा है !!
 
आबिद : दीदी ये मेरी बांह पर लगे ठीके  का दाग़ और ये पेन ताउम्र मेरे साथ रहेंगे !
 
विशाखा : पेन तो ये पकड़ और बता खा खाएगा , रस्ते से लेते चलेंगे घर पर तो नार्मल खाना बन चूका होगा मैंने किसी से तेरे आने की बात नहीं कही है !
 
आबिद : दीदी, अगर आज वो ही गोबी की पकौड़ियाँ खाई जायें तो ? जो आपने वैभव भैया की शादी के दिन बारात के जाने के बाद बनाई थी ?
 
             विशाखा ने मुस्कुराते हुए घर पर नौकर को गोबी खरीद कर रखने को कहा और आबिद को ले कर चल दी अपने बड़े से सरकारी बंगले की तरफ ! आगे पीछे सिपाहियों की कतारें ,  हर काम के लिए एक सिपाही ! 
 
            विशाखा के लिए रोज़ दफ़्तर से घर जाना जैसे एक दूसरी डियूटी पर जाने जैसा था ! अकेले रात भर सरकारी बंगले में कभी लैपटॉप तो कभी टेलीविज़न तो कभी रेडिओ के साथ नींद आने तक कर सफर और फिर सुबह जल्दी से दफ्तर , घर पर रुके भी तो किसके लिए और घर वापस जल्दी आये तो लिए !
 
            लेकिन आज ऐसा नहीं था ! उसका छोटा भाई आबिद था उसके साथ ! दफ्तर से सरकारी गाड़ी तक पहुचने में जितने भी अधिकारी मिले सब से आबिद को मिलवाती चली विशाखा मेरा छोटा भाई है कह कर !
 
सब अधिकारिओं ने पहली बार अपनी साब के चहरे पर मुस्कान देखी थी , मातृत्व देखा था !
 
विशाखा ने रस्ते से कुछ कोक और स्वीट्स खरीदी ! बंगले के पास के मदर डेरी वाले को फ़ोन कर दिया की घर पर एक टूटी फ्रूटी आइसक्रीम की ब्रिक पंहुचा दे !
 
आबिद पूरे रस्ते विशाखा को देखता रहा ! उसके हाव भाव पढता रहा ! बीच बीच में आते अधिकारीयों के फ़ोन काल पर वो कैसे बात करती थी , जवाब देती थी सुनता रहा और याद करता रहा १२ , १५  साल पहले का वो दिन जब पहली बार वो विशाखा से मिला था !

अरे आप कहाँ चली गयी थी फातिमा बी , इतना सारा काम पड़ा है ! विशाखा की चाची ने आबिद की अम्मी को ज़ोर दे कर बोला !

फ़ातिमा बी : जी , आबिद के स्कूल की  छुट्टी का वक़्त था तो बस उसको लेने थी !

चाची : ठीक है , अब आगया ना ! अब काम देख लीजिये !

फातिमा बी : जी अच्छा कहते हुए ८ , ९ साल के हाफ़ नेकर में खड़े आबिद से बहार बरामदे में जा कर बैठने को कहा !

आबिद : अम्मी , प्यास लगी है !

फातिमा बी : अच्छा तुम वहां चलो  पानी लाती हूँ !

          आबिद बाहर बरामदे में  किनारे बैठ गया और देखने लगा कही फूल तो कहीं लाईट लगाते कारीगरों को ! कभी कोई आता तो कभी कोई ! सब्ज़ियों के ठेले , तो कभी राशन वाले के रिक्शे ! कभी दूध के बर्तन तो कभी मिठाइयों से भरी टोकरियाँ ! कभी उसके आस पास से खेलते हुए गुज़ारे शादी में शामिल होने आये रिश्तेदारों के बच्चे तो कभी वैभव भैया के दोस्तों के  सिलसिला ! एक दो बार कुछ लोगो ने आबिद से घर से किसी को बुलाने को कहा और आबिद बड़े अपनत्व से भीतर जा कर जो भी पहला शख्स मिला उसे बुला लाया ! मानो जैसे उस बड़े घर में उसके होने की भी सब को फ़िक्र है ! कभी चाचा जी ने किसी मेहमान के आने पर आबिद से ही कह डाला जाओ अंदर जा कर चाय नाश्ते का देखो !

        इस सब में शायद अम्मी पानी देना भूल गयी थी आबिद को, पर कोई था जिसे ख्याल था की आबिद स्कूल से सीधे शादी के घर में आया है और भूखा प्यासा है सब बरात की तैयारी में लगे थे तो सका ख्याल अम्मी को भी नहीं रहा !

किसी ने आबिद की तरफ एक पत्ते का दोना और गिलास में पानी आबिद की तरफ बढ़ाते हुए कहा , लो तब तक पानी पियो तुम्हारी अम्मी काम कर रही है !
 
आबिद : जी अच्छा !

            इस घर में पहले तो देखा नहीं था आबिद ने इनको !  शायद वैभव भैया की रिश्तेदार होंगी और शादी में आई है ! कितनी अच्छी है ! आबिद पानी पीते और मिठाई खाते सोचता जाता था की तभी चाची ने आवाज़ लगाईं !

कहाँ रह गई विशाखा ?

विशाखा आई चाची कहती हुई  अंदर चली गयी !

चाची : विशाखा बार बार मैं काम के लिए टोकूंगी नहीं , बड़ी हो सब बच्चो में कुछ तो ख्याल करो भाभी जी और भैया का ! शादी के घर में कई तरह के लोग आते हैं और तुमको इस लिए भी हॉस्टल से शादी में बुलाया है की शायद किसी की तुम पर नज़र पड़े और तुम्हारी शादी की बात बने ! तुम्हारे चाचा कब तक अपने बच्चो के साथ साथ तुम्हारा भी खर्च उठाते रहेंगे ! भैया भाभी कुछ छोड़ कर तो गए यही जो था वो सब उनके इलाज़ पर खर्च हो चूका है ! तुम समझ रही हो ना ?

 " विशाखा तो जैसे कोने में लगी तुलसी सी सुकुड गई थी ! कड़वे शब्दों और घूरती निगाहों के स्पर्श से मुरझने को थी वो की तभी आबिद भीतर आया और बोला  : दीदी वो डाकिया आया है ,कोई रजिस्टरी है ,कहता है बिना सिग्नेचर के नहीं देगा ! "

चाची : अच्छा अच्छा उसको रोको अभी आती हैं तेरी दीदी !

विशाखा ने मन ही मन आबिद और देखिए को शुक्रिया कहा , नहीं तो और कुछ से चाची बातों के ताने देती !

डाकिया : यहाँ सिग्नेचर करिये !

विशाखा : जी पेन दीजिये !

डाकिया : बिटिया , आज पेन मेरा रास्ते में गिर गया !

विशाखा : ओह्ह , ठीक है रुकिए मैं लाती हूँ अंदर से !

आबिद : दीदी ये लीजिये पेन , चलता गुलाबी है मुझे पिछले हफ्ते ही क्लास टीचर ने दिया था , पूरी अटेंडेंस होने पर  !

विशाखा ने रजिस्ट्री ले ली और गुलाबी पेन को लिए लिए भीतर चली गयी !
 
आबिद बाहर बैठा बैठा इंतज़ार करता रहा ! अपनी अम्मी और विशाखा का भी !
 
       पूरी गली में रौशनी , बैंड बाजा, शहनाई का तरन्नुम , केवड़े और गुलाबजल की खुशबु , सजे धजे मेहमान ! चारो तरफ़ खुशियों और उल्लहास  माहौल ! वैभब भैया की बारात चलने को थी !
 
चाचा : अरे , विशाखा तुम नहीं चलोगी ?
 
अभी विशाखा कुछ बोलती चाची बीच में बोल उठी , सब शादी में चले जायंगे तो  घर पर कौन रहेगा !
 
चाचा : अच्छा ठीक है , विशाखा तुम यही रुको , फातिमा बी से भी बोल देता हूँ रात में इधर ही रुकने को !
 
विशाखा : जी चाचा जी आज देर शाम मेरे आई पी एस का रिजल्ट आने को है रिटन का मैंने आपका ही नंबर दिया है अपने दोस्त को , हो सका तो वो आपको फ़ोन करेगा लखनऊ से !
 
चाची : अरे इतने शोर में कहाँ फ़ोन सुनाई देगा ,कल सुबह शादी के बाद देख लेंगे !
 
मायूस हो गया विशाखा का चेहरा और पास खड़े आबिद को भी कुछ ठीक नहीं लगा ये सब !
 
             बारात जा चुकी थी ! घर में दिन भर के शोर ने ख़ामोशी की चादर ओढ़ ली थी ! बड़े से घर के दरवाज़े खिड़की बंद कर के विशाखा अकेली बैठी थे ड्राइंग रूम में ! तभी नीचे से फातिमा बी ने आवाज़ लगाईं :
 
विशाखा दरवाज़ा खोलो , आबिद को तब तक रखो अपने साथ में घर पर खाना बना कर बुला लूंगी उसको !
 
विशाखा : चाची ( फातिमा बी को भी चाची पुकारा उसने ) , आप यही रहिये और यहाँ जो खाना बना है वो ही बहुत है हम सब के लिए !
 
        आबिद को अचानक जैसे किसी ने झकझोर दिया था ! उसकी माँ को किसी ने चाची कह कर पुकारा था ! वो भी विशाखा ने जो अब तक के मिले सब लोगो में सब से अच्छी लगी थी उसको !
 
मौसम खराब हो चला था ! तेज़ बारिश , बिजली का चमकना और फिर तेज़ हवायें ! ठंडक बढ़ गयी थी !
 
चाय पियेंगी चाची : विशाखा ने फातिमा बी से पुछा और आबिद से बोली तुम खाना खा लो ,  फिर सो जाना !
 
आबिद : क्या है , खाने में दीदी ?
 
कढ़ी और चावल ,पर पकौड़ियाँ खत्म हो गयी हैं !
 
आबिद : तो क्या हुआ , लाइये दीजिये बगैर पकौड़ियों के खा लूँगा !
 
     अजीब से संतोष की खुशबू  थी आबिद के इस कथन में जैसे भरी दोपहर में तेज़ लू के बीच अचानक चन्दन की खुशबू फ़ैल गयी हो !
 
अच्छा रुको आबिद कुछ देर ! विशाखा ने एक तरफ चाय और एक तरफ गोभी की पकौड़ियाँ बनाई !
 
आबिद खाने के बाद विशाखा की गोद में ही सो गया और फातिमा बी के  कहने के बावजूद उसने उसे अपने से अलग नहीं किया !
 
    पड़ोस के घर में लैंड लाइन कब से बज रहा था ! सब तो शादी में गए थे बस एक २० , २३ साल का लड़का विपुल  था जो कभी कभी विशाखा को छत से देखा करता था !
 
विपुल : अरे ,विशाखा है कोई वैभव भैया के घर में !

फ़ोन वाले घर से उस लड़के ने आवाज़ लगाईं !
 
विशाखा ने आबिद के सर को धीरे से सोफे के कुशन पर संभाल कर सरकाया और भाग कर गयी बरामदे में !
 
हाँ बोलो ?
 
विपुल : तुम विशाखा हो ?
 
हाँ ? क्यों क्या हुआ ?
 
विपुल : तुम्हारे चाचा जी का  फोन था , तुम्हारा रिज़ल्ट आ गया है और तुम ने क्लियर कर लिया है !
 
उछल पड़ी इतना सुन कर ! छलांग लगाने को तैयार इतना उत्त्साह !
 
विपुल : अरे , सम्भलना और पहले अंदर जाओ , मैं आता हूँ वहां थोड़ी देर में !
 
विशाखा बिना चुन्नी के चली आई थी बरामदे में , विपुल के अंदर जाओ कहने के बाद समझी और नज़रें झुका कर अंदर चली गयी !
 
विपुल दरवाज़े पर था छतरी लिए , फातिमा बी ने अंदर आने को कहा उसको !
 
विपुल : किस चीज़ का एग्जाम क्लियर किया तुमने ?
 
आय पी एस का रिटन ! विशाखा बोली !
 
वाओ , ये बड़ी अच्छी बात है ! लाओ मिठाई खिलाओ !
 
विशाखा ने लो कहते हुए परवल की घर में बनी मिठाई आगे बढ़ा दी !
 
अपना लैंड लाइन नंबर दे दो प्लीज़ , कभी  चाचा जी से बात करने को मन किया तो कॉल कर लूंगी !
 
विपुल  : हाँ हाँ , लाओ पेपर और पेन दो !
 
विशाखा ने वो आबिद का गुलाबी पेन आगे बढ़ा दिया ! विपुल ने नंबर लिखा और पेन अपनी जेब में रख लिया , शायद जान बूझ कर किया था उसने !
 
आबिद अब जाग गया था ! सब सुन और देख रहा था !
 
      बारिश थमी तो विपुल अपने घर लौट गया ! अगले दिन बारात वापस आई ! विशाखा अपने हॉस्टल  फिर वहां से ट्रेनिंग पर गयी ! सब का व्यवहार बदला बदला था ! कुछ दिनों में पोस्टिंग और पोस्टिंग के साथ वो आज सीनियर पोस्टिंग पर थी !

ड्राइवर ने लंबा हॉर्न दिया , गाड़ी बंगले के सामने कड़ी थी !
 
ओ भाई कहाँ खोये हो ? घर आ गया ! सरकारी गाड़ी में पुरानी यादों में खोये आबिद को विशाखा ने पुकारा !
 
आबिद का यादों का झूला अचानक थम गया था !
 
आओ आबिद ये है तुम्हारी दीदी का घर ! विशाखा ने गर्मजोशी से आबिद का स्वागत किया !
 
    डिनर के बाद आइसक्रीम खाते हुए आबिद ने विशाखा से पुछा : दीदी आप इतने साल मुझ से मिली क्यों नहीं ? आपने  मेरी हर ज़रुरत का ख्याल रखा फिर भी आप मुझ आज मिली जब मैं कुछ बन गया और नौकरी शुरू करने वाला हूँ , क्यों ? मुझे भी खुद से मिलने नहीं दिया , क्यों ? हर बार प्रिंसिपल से कह कर मुझे अपना पता देने से मना कर दिया !

अचानक डाइनिंग टेबल पर माहौल बदल गया था !

विशाखा ने खाना परोसने वाले सहायक को अंदर जाने को कहा !
 
विशाखा : क्या ये सब जानना ज़रूरी है आबिद  ? आज हम दोनों एक दूसरे के साथ हैं क्या ये ही कम है ?
 
आबिद : हाँ वो तो ठीक है पर क्या मुझे ये जानने का हक़ नहीं की मेरी परवरिश करने वाले ने क्यों मुझे खुद से अलग रखा इतने दिन ? आप बताइये और अभी बताइये !

आबिद ने अपनी चम्मच प्लेट में रखी पिघलती आइसक्रीम पर रख दी और आँखे नीची कर कर चुप हो गया !

           विशाखा जैसे ऐसे अधिकार को तरस रही थी ! कोई उस से ऐसा अधिकार जताता ! वो उठी और आबिद के करीब आ कर खड़ी हो गयी ! आबिद लिपट गया अमर लता सा विशाखा से ! अपने जीवन को सँवारने वाले से शिकवा करता हुआ ! विशाखा ने आबिद की आँखों टपकती लालसा देखी जो चाहती थी की उसे पता चले की माँ के बाद दूर रह कर भी कैसे कोई उसकी माँ का फ़र्ज़ निभा रहा था !

विशाखा ने आबिद के चहरे को दोनों हथेलियों से सँभालते हुए कहा : अच्छा चल , ये आइसक्रीम फिनिश कर फिर वाक पर चलते हैं , सब बताती हूँ !

विशाखा : वैभव भैया की शादी के बाद मैं ट्रेनिंग पर चली गयी ! बीच बीच में मैं विपुल  से बात करती रहती थी ! तुम्हारा हाल भी मिलता रहता था ! एक साल के बाद मेरी ट्रेनिंग खत्म हुई ! मुझे पहली  पोस्टिंग मिली ! मैंने ख़ुशी ख़ुशी विपुल  को  फ़ोन किया लैंड लाइन पर  तो मुबारकबाद के बाद उन्होंने बताया की फातिमा बी नहीं रही ! मुझे तुम्हारी चिंता हुई ! तब मैंने और विपुल ने तुम्हे अच्छे हॉस्टल में दाखिल करने का फैसला लिए ! हर महीने तुम्हारे स्कूल की फीस मैं भर्ती थी तो बाकि की चीज़ों का ख्याल विपुल करते थे ! दिन बीतते जा रहे थे , मैं और विपुल करीब आते जा रहे थे ! तुम्हारी पढ़ाई  ज़रूरतों का वो ही ख़याल करते थे ! मैं तो बस अपनी सैलेरी का एक हिस्सा तुम्हारे अकाउंट में ट्रांसफर करती थी जिसे वो ऑपरेट करते थे  तुम्हारे लिए !

सुनते सुनते आबिद ने ध्यान दिया की अचानक दीदी ने विपुल भैया को उन्हें , उनके कह कर सम्बोधित करना शुरू किया था !

विशाखा तो जैसे पानी से बही जा रही थी यादों की सुरंगों से ,जिसके एक किनारे पर आबिद था तो दूसरे किनारे पर विपुल !

विशाखा : एक रोज़ विपुल  ने मेरे सामने शादी का प्रोपोजल रखा ! अच्छा कारोबार था उनका ! अच्छा परिवार ! उनके परिवार ने मेरे चाचा जी से बात करी और शादी भी हो गयी ! कुछ दिन मैं रही भी अपने ससुराल फिर पोस्टिंग्स के कारण मुझे आना पड़ा ! व्यापार के कारन वो मेरे साथ नहीं आ सकते थे तो मैं नौकरी नहीं छोड़ना चाहती थी ! बस फिर धीरे धीरे हमारा मिलना कम हो गया और पिछले ३ सालों से बिलकुल संपर्क नहीं है !

आबिद बीच में बोला : लेकिन इतना सब के बाद भी मुझे और मेरी पढ़ाई पर आप दोनों ने कोई असर नहीं होने दिया !

विशाखा : हाँ वो ख्याल रखते है बहुत तुम्हारा !

आबिद विशाखा से लिपट गया और ज़ोर से पकड़ लिया अपनी दीदी को ,रूंधे गले भीगी आँखों से कहता हुआ आप दोनों एक साथ क्यों नहीं है ?

विशाखा के पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था !

अगले दिन !

आबिद तुम आज रहोगे ना तुम्हारी जॉइनिंग तो कल से है ना ? विशाखा ने आबिद के कमरे के परदे सरकाते हुए पुछा !

आबिद : हाँ दी !

ठीक है , लो ऑरेंज जूस पियो और फिर अपने आप प्लान कर लो सब ,मैं गाड़ी और ड्राइवर छोड़े जा रही हूँ !

आबिद : जी दीदी ! ड्राइवर वही है ना जिसे आपने मुझे लाने के लिए हॉस्टल भेजा था !

विशाखा : हाँ , वो ही हैं ! पहचान हो गयी उनसे तुम्हारी ? गुड !

         शाम को विशाखा घर लौटी ! भीतर घुसते साथ लेवेंडर की खुशबू से सारा घर महक रहा था ! आबिद ने रजनीगंधा के गुच्छे से वेलकम किया अपनी दीदी का और कहा की आइये भीतर चलते है , विशाखा ने जैसे ही अगला कदम डाइनिंग रूम की तरफ बढ़ाया सामने टेबल के उस छोर पर विपुल को बैठा देखा फिर नज़रे आश्चर्य से आबिद की तरफ कर ली !

      डाइनिंग टेबल का माहौल बदल चूका था और पीछे दीवारों पर लगे वूफर्स पर मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ गूंज उठी "
                                           " ओ शहज़ादी सपनो की ,
                                                    इतनी तू हैरान ना हो !
                                                          मैं  भी  तेरा  सपना हूँ,
                                                              जान मुझे अनजान हो ! "
                                                                       जनम जनम का साथ है ,
                                                                               निभाने को ………   
                                                                                    सौ सौ बार मैंने जनम लिए !!

विपुल , विशाखा और आबिद याद कर रहे थे उस गुलाबी पेन को  जसे डाकिया ने माँगा था , जिससे लैंड लाइन नंबर लिखा था ................... उस बारिश की रात गोबी की पकौड़ियों की महक  के साथ

                                                                 ~~~~  समाप्त ~~~~

एक कहानी : वो गुलाबी पेन !

                                                                      ::: मनीष सिंह :::