कभी कभी एसा भी हो जाता है की दो या दो से ज्यादा लोगो के मध्य वार्ता के लिए विषय नहीं रह जाते और सब शून्य हो कर एक दुसरे को निहारने लगते हैं की कोई कुछ कहे की समय कटे ....!!
बड़ी असहज से इस्थिति होती है वो ....हर विषये का ज्ञान रखने वाले अचानक से ज्ञानहीन से हो जाते हैं तथा लगाने लगता है की ,,,,,बस किसी तरह से कोई आये और इस प्रगाढ़ होते जा रहे शून्य को तरलता का स्पर्श दे ताकि ज्ञान धराये अपने होने और नाही खोने का एहसास करने लगें !
किन्तु एसा कभी नहीं है की एसा होता ही है.....कई बार इसी अवस्था बनाई जाती है की हर विषय पर बोलने वाला शांत हो कर किसी और के बोलने की प्रतीक्षा करे या , दुसरे को सुने ....
कुछ लोग विषय नहीं होने पर कुछ अत्यधिक ही बोल कर नवीन विषय को जन्म दे देते हैं ....और ज्ञान की बातें पता चलती हैं....कुल मिला कर शून्यता कभी कभी ५ घंटो के प्रवचनों से भी अधिक प्रभावशाली एवं प्रयोगात्मक हो सकती है ....एसा मना जा सकता है......
कोई चीज़ अच्छी हो सकती है किन्तु उसको अच्छा समझाने के लिए ....आपके पास उसके बुरे का तजुर्बा होना चाहिए..तभी ना आप उस चीज़ के विषय के बारे मैं सही एवं प्रासंगिक निर्णय दे सकेंगे ....अन्यथा कहने को तो कुछ ना कुछ कहा ही जाता है.
प्रायोगिक होने एवें विशायिक होने मैं अंतर होता है .....जो होना भी चाहिए....जीवन सरल हो जाता है....जीने के लिए एवं वार्ता करने के लिए ......असहज नहीं लगता !
- मनीष
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